जो खुला आकाश स्वर मेंं
जो खुला आकाश स्वर में स्वच्छंदता से गूंज पाता ।
सो रहे आलस्य से जो, झकझोर कर उनको जगाता ।।
फिर उठ रहे हैं जो कदम दुर्भावना के द्वेश मेंं ।
निर्मूल कर उनको सहज सदभाव का विस्तार लाता ।।
मुंह पर लगे ताले, रुह को झकझोरते हैं ।
ज्वाल उठता हृदय मेंं मन का संयम तोड़ते हैंं ।।
कितना कठिन है देश की तरुणाई को बांध रखना .
समझ पाती जो सियासत, सरल होता शान्ति रखना ।।
बात छोटी भले हो, पर शीघ्र बनती एक बबन्डर ।
एक चिनगारी लगाकर राख करती
सैकड़ों घर ।।
पूर्व आग्रह उमड़कर प्रतिशोध की ज्वाला जलाते ।
इक शान्त वातावरण को रणभूमि की संज्ञा दिलाते ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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