Saturday 3 December 2011

भू पर पग धर धरा उठा ले



हे मानव तू इस भूतल पर, विधि की सर्वश्रेष्ठ रचना,
   प्रतिनिधि मुख्य बना कर भेजा, करने को सच सपना
      शक्तियां अनेकों अर्पित कीं, विधि विधान से जग संचाले
          जो भी साध्य अपेक्षित हों, विज्ञान ज्ञान से तू सब पाले
                                                भू पर पग धर धरा उठा ले
संभव है तू उड़े व्योम में, अम्बर की सीमायें नापे,
    ये भी संभव पद चिन्हों के, जलनिधि भीतर तू दे थापे
        चीर पर्वतों का सीना तू, सुन्दर सुललित पंथ सुझा ले
            नहीं त्याज्य है साथ जमीं का, चाहे तू सब निधियां पा ले
                                               भू पर पग धर धरा उठा ले
दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध, जीवन माधुर्य नष्ट करते,
    अज्ञान तिमिर आच्छदित हठ, बरबस ही प्रज्ञा हरते
        ये असुर वृत्तियाँ पनपें ना, ऐसा जीवन लक्ष्य बना ले
            द्वेष त्याग, शुचिता आधारित, सत्य पूर्ण तू पथ अपना ले
                                              भू पर पग धर धरा उठा ले
 नभ में उठी आंधियां चहुँदिश, तिमिर दिखे घनघोर घना,
    जीवन के उद्विग्नों से, मानव दिखता भयभीत मना
        तू आशा की कोकिल बन भर तान मधुर, नवगीत सजा ले
           जन मन प्रमुदित हो, विहंस उठें , युक्ति कोई ऐसी अपना ले
                                              भू पर पग धर धरा उठा ले


श्रीप्रकाश शुक्ल

-- Web:http://bikhreswar.blogspot.com/

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Saturday 19 November 2011


वचन :रचनाकार नारी को हर क्षेत्र में सामान अधिकार दिए जाने का समर्थक है पर आधुनिकता के नाम पर  दैहिक स्वच्छंदता अपनाकर, वैभव प्राप्त करने की होड़ में,  भारतीय संस्कृति की परिधि लांघ, केवल वस्तु बनकर रह जाने को असंगत समझता है | सह अस्तित्व से पुरुष के साथ एकाकार होकर रहने को ही जीवन की निधि मानता है | 

मनु  तुम कब समझोगे
 
मनु  तुम कब समझोगे, प्रश्न अनूठा, रहा अनुत्तरित कैसे, 
    कस्तूरी मृग बौराया सा,  ढूंढें बन में,  सुगंधि  जैसे
       मनु ने तो आचरण सहिंता, विधि विधान से रच,की, अर्पित 
           जीवन का व्यवहार कार्य,  सम्भव हो, जिससे संचालित

अरी, अदिति क्या समझा तुमने, मनु से कोई भूल होगयी,  
   मानव मूल्य, अस्मिता, फलतः छतिग्रस्त, क्षीण, निर्मूल हो गयी 
      ये अवधारणा सर्वथा  मिथ्या, सच से परे , संकुचित लगती, 
        मनु मुख के  हर शब्द पुष्प से, जीवन बगिया अब भी सजती 

यदि प्रसंग नारी का हो,  जाज्वल्यमान थी आभा उसकी 
    श्रद्धा, ज्ञान ,शौर्य जननी, सर्वत्र पूज्या  छवि जिसकी 
        वेदों ने  माना नारी  को, विधि का अमूल्य,  दुर्लभ उपहार 
            श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आराध्या, शाश्वत श्री, अनुपम अवतार 

पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव, भारत भू पर  गज़ब ढा रहा, 
     अविवेकशील, प्रतिस्पर्द्धा का ,पाठ निरंतर, पढ़ा जा रहा 
          वर्चस्व प्राप्त करने की धुनि में, आत्महीन नारी दिखती ,
             अन्धानुकरण, अशुचिता में फंस स्वाभाविक  संयम तजती 

 आत्मविवेचन कर सोचें, प्रज्ञा दें उदगारों को,   
      चुनें  एक ? सहजीवन, समता, या स्वच्छंद विचारों को,  
         प्रतिमूर्ति लालशाओं की हों, विपणन रीति नीति चुनकर , 
              या करें नियंत्रण नव युग का, धीर, वीर पूज्या बनकर 
विपणन : बाजारू ,क्रय-विक्रय 
श्रीप्रकाश शुक्ल   

Saturday 5 November 2011


मृत्यु, तेरे आलिंगन के आकर्षण में
 
जीवन का कटु सत्य, शाश्वत सत्य, मृत्यु का आलिंगन,
  फिर होना  अशांत, आतंकित , मात्र  मनस्थिति  का  धुँधलापन     
    जो आया,  निश्चित जाएगा, अमरत्व  कभी संभाव्य नहीं
       जो जीते ही, निशदिन मरते,  इस से बढ़कर दुर्भाग्य नहीं 
 
 मृत्यु, तेरे आलिंगन  में,  देखा  जीवन तत्त्व समाहित,
  जो प्रबुद्ध थे समझ सके, अपवर्जन रख सके प्रवाहित 
    बैसे तो सारा जीवन ही, कट जाता है, धुनते बुनते, 
       सुख संचय, समृद्धि हेतु रतअनुचित उचित दिशा चुनते
 
  मृत्युतेरे  आकर्षण में, उन्मत्त नशा दीवानों का, ,   
  जो जनहित के पुण्य  यज्ञ में, हवन  करें  अरमानों  का 
    मृत्यु, संगिनी जीवन  की, आलिंगन कर, गल बाहें भरते
       असमय टूट बिखर जाते, उत्पीड़क सत्ता से लड़ते 
 
 ऐसे अनेक मानव महान, भारत भू पर आये, ले प्रण 
  जिनके अपूर्व आदर्श आज,सम्पूर्ण विश्व कर रहा अनुकरण
    ऐसे  कर्मठ बीरों की, गाथाएं रहतीं अजर अमर
       नयी  पीड़ियों के तरुणों में, भरतीं उर्जा, उल्लास प्रखर 
 
अपवर्जन:  सर्वस्व त्याग  की भावना

श्रीप्रकाश शुक्ल 

जिजीविषा बदनाम होगयी
 
संघर्षों के बीच झूलता रहा, जिन्दगी का  यायावर
  जब भी चाहा मुक्त तैरना,  खीच  ले गयी  नई भंवर
    जीवन नौका खेना दुष्कर, चर्चा ऐसी आम  होगयी
       लँगड़ाते अनुबंध निभाते, जिंदगानी एक काम होगयी 
                              जिजीविषा बदनाम होगयी
 
प्रेयसि पार्श्व  बैठकर देखूं, जल प्रपात  की धाराएं 
  प्रतिबिंबित हो जहाँ  रश्मियाँ,  सतरंगी आभा  फैलाएं
    खग बृंदों की कलरव ध्वनि,  जीवन में गुमनाम होगयी
      उलझे रहे प्रपंचो में,तब तक जीवन की शाम होगयी
                              जिजीविषा  बदनाम होगयी
 
जीवन है  पावन यज्ञसत्य  की खोज अग करनी है 
  आहुति देनी  होगी खुद कीह्रदय शांति यदि भरनी है
    कल कलुष मिटाने की चाहत,  मन की  चिंता धाम होगयी  
      दुरुह द्वन्द, दुविधा निबटाते, जीवन धार तमाम  होगयी 
              जिजीविषा बदनाम होगयी
 
आसक्ति, प्रलोभन, दुर्विचार, झंझावात रहे जीवन के
  अवगाहन कर मानव ने, दूभर कष्ट सहे  तन मन  के
    जब समझा इनके कारण  ही, जीवन की गति जाम होगयी  
              आँधियां  रुकीं , अहुटे बादल, और धुली सी घाम होगयी 
                               जिजीविषा अभिराम होगयी                  
 श्रीप्रकाश शुक्ल

Tuesday 11 October 2011

पाकिस्तानी टेलीफोन

आज डायरी के पन्नों को , पलट रहा था प्रातः उठकर
आँखों के सन्मुख आ पहुंचे, धूमिल से कुछ चित्र उभरकर
परिद्रश्य एक छोटा सा, अंकित था प्रष्ट इकत्तर पर
युद्ध काल की संध्या थी, जब भेजा गया मुझे पूर्वोत्तर

खडी हुयी वो मध्य द्वार पर, बिटिया लटकाए हाथों पर
आँखों से जल धार बह रही, खोल सकी ना बंधे अधर
मैंने ही बोला था उससे, चिंता फिकर न कोई करना
मैं जल्दी ही लौटूंगा, पर तुम कोई जिकर न करना

शीश हिलाकर यही कहा था, जाओ यदि जाना ही है
लेकिन इस बिटिया की खातिर, तुम्हें लौट आना ही है
एक बार फिर मुडके पूछा, बेटा ! तुम्हें चाहिए क्या
मम्मी के जन्म दिवस पर बापस आ सकते हो क्या ?

विजय दिवस के दिन जब, घर को बापस आना था
सोचा कुछ उपहार ले चलूँ, बिटिया को जो मनाना था
ध्वंश पड़े से दफ्तर सारे, घिरा हुआ शमशानी मौन
साथ ले लिया दुखी विलखता पाकिस्तानी टेलीफोन

बिटिया ऐसा देख खिलौना, कितना मन हरसाई थी
लगता था उसने दुनिया की, सारी जन्नत पायी थी
कहती थी मेरे पापा, बस आज लौट कर आयें हैं
और भगा कर दुश्मन सारे, ये फोन छीन कर लाये हैं


श्रीप्रकाश शुक्ल





सहायक सन्दर्भ : ऐसा मानते हैं कि नारियल, मक्खी और ईख विश्वामित्र द्वारा सृजन की हुयी हैं |


निकास


पंथ अवरोधित हो जब,
आँखें दिखाएँ और
गुर्राएँ दिशाएं,
हार मत,
देख मत
मुड़कर कभी,
सामर्थ सारी
झोंक दे ,
अवरुद्ध पथ को चीर कर
निर्माण कर तू
नयी राहें
भूल मत तू अंश किसका ?
निर्जल किया
सारा उदधि,
मात्र एक अंगुष्ठ से |
प्रक्षेपित
त्रिशंकु को किया
सहज दिव्य दृष्टि से
प्रारंभ की, दुनिया नयी
जब दी चुनौती ब्रह्म को
ईख, माछी, नारियल,
अब भी जताते चिन्ह वो
शक्ति सारी है निहित,
आज तेरे आत्मबल में
क्षीण मत कर तेज वो
प्रारब्ध के निर्मूल  पल में 

श्रीप्रकाश शुक्ल

Friday 30 September 2011

सहायक सन्दर्भ : किरणसती, अकबर के दरबार के एक कवि प्रथ्वीराज राठौर की पत्नी थी जिन्होनें खुशरोज़ बंद करवाया |वो शाक्तावत कुल की थी

फिर अतीत की खुली डायरी, और तुम्हारी बात  हुई  

फिर अतीत की खुली डायरी, और तुम्हारी बात  हुई  
      पदचिन्ह तुम्हारे पड़े दिखाई, एक मधुर सौगात हुई
               आओ एक बार सब मिल कर, श्रद्धा सुमन चढ़ा लें
                     पग रज धार शीश पर अपने, स्वर्णिम गाथा गा लें

कौन भूल सकता है उस, पूज्या पन्ना धाई को
       खुद का बालक सौंप दिया, निष्ठुर क्रूर कसाई को
              ममता कुचल, देश प्रति बलि का, सब करते अभिनन्दन
                    छत्रपती की जीवनदा माँ, तुमको शत शत वंदन

साँसें बोझिल ह्रदय अनुतपत, आँखों से बरसात  हुई 
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई  

अगला पन्ना खुला हवा से, किरणसती अंकित जिसपर
      साक्षात चण्डिका बन बैठी, अकबर की छाती चढ़कर
            हाथ जोड़ गिड़गिडा़ रहा था, मांग रहा था जीवन दान
              खुशरोज़ पर्व की अन्त्येष्टि की, धन्य धन्य शाक्तावत शान


रोम रोम पुलकित था तन, जब चर्चा ये विख्यात  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई  


भामाशाह  की गौरव गाथा, झांक रही अगले पन्ने पर
      जीवन भर की सारी पूँजी, भरी एक थैली के  अंदर     
           अरावली का शीर्ष शिखर, जब भटक रहा था जंगल में
                लाकर उड़ेल दी थी थैली, मेबाड़ मुकुट मणि चरणों में

गाथा ऐसे बलिदानी की इस युग न सुनी ना ज्ञात  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई 

वही परिंदे उड़ पाए, जो डरे नहीं तूफानों से
      अम्बर की सीमा नापी, संकल्प भरे अरमानों से
            अब अपना दायित्व यही , ये पन्ने उचट विखर ना जाएँ
                 इनमें तसदीकित कृतित्व , जन जीवन में कैसे लायें

जब भी निर्णायक समय पड़ा, ये सुधिकृति हरदम साथ  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात हुई




श्रीप्रकाश शुक्ल



Wednesday 14 September 2011

मन तुम्हारी रीति क्या है


प्रवल निर्झर से समाहित , मन तुम्हारी रीति क्या है
अविछिन्न, अविरल, धार में, इंसान का सब कुछ बहा है
स्वच्छंद, चंचल, सतत प्यासे, भरते रहे वांछित उड़ाने
चिन्तक, मनीषी, विद्धजन, हो विवस, तुमसे हार माने


अनुभूतियों के जनक तुम, अनगिन तुम्हारी हैं दशाएं
फूल सी कोमल कभी तो, बन कभी पाषाण जाएँ
एक क्षण संगीत लहरी , मोद की सरिता बहाती
तो अगामी क्षण विषम हो, शून्यता सी समा जाती

है कठिन तुम पर नियंत्रण, मानते सब ही गुणी जन
पर खींच वल्गाएँ, सतत अभ्यास कर, थाम लेते अश्व मन
शांत मन यदि कर सकें तो, ज्ञान का हो अवतरण
ज्ञान के अंकुर उगें तो, सुगम, शुचि, जीवन भ्रमण



श्रीप्रकाश शुक्ल

Thursday 1 September 2011

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा ?
शिक्षा का अधिकार मिलेगा, जैसे हुआ विधेयक पारित
खुल जायेंगे द्वार सभी जो, अब तक रहे अगम, प्रत्याशित
सहज कर सकोगे अर्जित तुम, मनचाही प्रतिभा, कौशलता
और साथ में खड़े पंक्ति में, तौल सकोगे अपनी क्षमता

पर भूल गए क्यों वो सामंती सोच अभी तक जीवित है
ऊंची उड़ान की बात करें क्या, महज कल्पना भी वर्जित है

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
भुला सकेंगे लोग कि तुम जन्मे थे जहाँ, जगह थी निर्जन
धन विहीन , निन्दित ,निरीह , सेवारत था सारा वचपन
जन्म जाति को अनदेखा कर स्वीकारेंगे पौरुष बल पर
पहचान, जगह पा जाओगे, अधिकारी जिसके निशिवासर


पर भूल गए क्यों, वर्ण व्यबस्था, अब भी भर हुंकार रही
डस लेने को दीन दलित सब, सांपिन बन फुफकार रही

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
चुने हुए जनता के प्रतिनिधि, अपना दायित्व निभायेंगे
शासन  प्रदत्त सुविधाएँ, समभाव सभी तक पंहुचायेगे
मन वचन कर्म से पालन होगा, संविधान संरचना का
भृष्टाचारी,दुष्ट, दुराचारी, कर न सकेंगे चाहा अपना

\पर भूल गया तू कर्ण, अभी भी वही शक्तियाँ सक्रिय हैं
छलबल से छीन सभी के हक, अपने ही हित जिनको प्रिय हैं

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा
भौतिक अभ्युदय के साथ साथ, मानसिक मूल्य भी बदलेंगे
प्रगति समावेशी हो चहुँदिश , सब मिल नैया खे लेंगे
भाई भाई के लिए कोई , लाक्षा गृह नहीं बनाएगा
अभिरुचि, सिद्धांत अलग हों. पर आग नहीं भड़कायेगा

पर कर्ण अभी भी समय लगेगा, जब हो तेरी इच्छा पूरी
वैचारिक दूरियां भले ही हों, पर हों न दिलों में कोई दूरी


श्रीप्रकाश शुक्ल

पूज्य भाई जी की द्वितीय पुण्य तिथि पर सादर, सप्रेम पुष्पांजलि



बीत गए दो बरस आज, पर यादें अमिट रहीं हैं
मनस पटल पर आ छा जातीं, बातें कही अनकही हैं
जैसे जैसे समय बीतता, सुधियाँ और निकट होतीं हैं
सानिध्य आपका पा लेने को विचलित हो, वेकल रोतीं हैं

केवल सामीप्य सूचना ही, अतुलित उछाह भर देती थी
संबोधन की अनुराग भरी ध्वनि, घर गुंजित कर देती थी
छोटे छोटे संस्मरण चित्र, सहसा सन्मुख आ जाते हैं
मन खो जाता अतीत में नेत्र अश्रु कण ढुलकाते हैं


कितना अपनत्व छलकता था, गोपाल, राम उच्चारण में
पा ,रा, के खिंचते हुए दीर्घ स्वर, भरते थे खुशियाँ मन में
हलो, श्रीप्रकाश शब्दावलि जब कानों से टकराती थी
आ पहुंचा शक्ति स्रोत अपना, भावना उमड़ भर जाती थी


जब बिखरे हुए विशद कुनुबे में, बांछित मंतव्य नहीं आये
हम सभी हुए हतप्रभ हताश, दुःख के बादल आ मडराये
सान्त्वना पूर्ण सुविचारों की, गठरी ले साथ आप आये
जैसे ऊँगली थामें मुट्ठी में, कोई सड़क पार करबाये


बिना आपके आज सभी, हम निपट अकेला पाते हैं
जीवन क़ी हर इक गतिविधि में आप याद आजाते हैं
आज खड़े पुष्पांजलि देते ह्रदय विदीर्ण हुए जाते हैं
आप रहें प्रभु के समीप ही, हम सब यही मनाते हैं

श्रीप्रकाश शुक्ल









Wednesday 17 August 2011

चीटियाँ और हाथी


एक सीलन भरे,
घुप अँधेरे,
कोष्ट में,
थकी हारी,
मै अकेली
लड़ रही थी
कुरूप दुष्ट चीटियों से,
जंगली हाथियों से,
डर रही थी
बिखर रही थी
व्यस्त थी
त्रश्त्र थी 
पस्त थी
और कण कण ध्वस्त थी


एक मित्र आया
था अचंभित,
बोला
अरे चीटियों में,
हाथी दिखा कैसे ?
यह तो तुम्हारा भ्रम है
एक दूसर मित्र पहुंचा
बोला
अरे यह तो चीटियाँ ही है
हाथी कहाँ ?

हम तो देख सकते हैं
साफ़ साफ़ ,
यह तो तुम्हारा भ्रम है

फिर मैंने आँख खोली
और देखा झांक,
बह चुके थे
आंसू कितने
अब तक ?

क्या कोई चीटियाँ थीं
या कोई हाथी था वहां ?
या फिर मैं लड़ रही थी
केवल अपने भ्रम से ?

श्रीप्रकाश शुक्ल
मैं अकेली लड़ रही हूँ

हे मनु पुत्र, तुमने आज तक जो, नीति विधि के नियम बांधे
सोचे बिना औचित्य क्या, प्रतिबन्ध कर, बेखौफ लादे
इन रीतियों का भार ढोते, थक गए काँधे हमारे
होता नहीं चलना सहन, अब दूसरों के ले सहारे

निष्प्राण कर इन रूढ़ियों को, भर कफ़न ,
पुरुषार्थ की कीलें नुकीली, जड़ रहीं हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

मैं जानती अच्छी तरह, है काम यह मुश्किल बड़ा
पर पत्थरों के बिना फेंके, फूटे नहीं कोई घड़ा
भरते रहें कितने घड़े, उनको न कोई है फिकर
जूँ न रेंगे कान पर, मनुष्यत्व जाए भले मर

ये कलुषता मेंटकर ही, चैन की मैं सांस लूं
इस अमिट संकल्प में, मैं सदा से दृढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

पाश फैलाए कि, शोषण हो सके पर्यंत जीवन
लिंग के आधार पर, चलता रहे अधिकार बंटन
विधि के प्रपत्रों में समूचा, पुरुष का ही हाथ हो
पुरुष को माने जो प्रतिनिधि, वो ही महिला साथ हो


धारणाएं बन न पायें, प्रष्ट नव इतिहास का
ऐसा अभेदी चक्रव्यू, मैं संगठित हो, गढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

रासायनिक वो तत्व जिनसे, प्रकृति ने तुमको रचा
वो सभी मुझ में समाहित, है वही पंजर समूचा
बुद्धिबल अन्विति पर, जिसका तुम्हें अभिमान है
कम न तिलभर पास मेरे, इतना मुझे भी भान है

जिस किसी भी क्षेत्र में प्रतिमान जो तुमने बनाये
खींच रेखाएं बड़ी, तोड़ वो मानक, सहज ही बढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ


श्रीप्रकाश शुक्ल



--
प्राण बूँद को तरसे


बीता असाढ़, आया सावन, बहती बयार, शीतल मनभावन
आये घिर बदरा, गगन मगन, हर्षित उल्लसित, धरा पावन
आतुर अधीर , संतप्त धरणि, प्रत्याशित दृग नभ ओर टिकाये
पहली फुहार की बाट जोहती, कसक भरे मन, मन ललचाये

फूटने लगीं कोपलें म्रदुल, तरुवर की शुष्क टहनियों में
झुरमुट से झींगुर की झीं झीं , भरती झनकार धमनियों में
नभ से टप टप झरतीं बूँदें अंतर्मन ऐसे सिमटीं
बरबस बिसराई सुधियाँ गत की, अनायास ही आ लिपटीं

पड़ रही सघन बौछार, ध्वनित जैसे मल्हार, रस बरसे
पल पल बीते ,जैसे बीते युग ,जब से पिय बिछुरे घर से
पिय बिन कौन बंधाये धीर, काँपता ह्रदय अजाने डर से
भड़क उठी बेचैनी मन की, प्रिय बिन प्राण बूँद को तरसे



श्रीप्रकाश शुक्ल

Thursday 14 July 2011

मैं कविता हूँ


कोई कहता मैं जन्मी हूँ , विरही की दुःख भरी आह में
कोई मानता जन्म हमारा , प्रियतम की अनथकी चाह में
कुछ भी हो, पर यह निश्चित है, जो कोई भी जनक हमारा
मैं दोनों की शांत प्रदाता, मैं दोनों की आँख का तारा


मेरा ही आश्रय पाकर , विरह गीत मुखरित हो जाते
आँचल में भर प्रेम संदेशे, प्रिया और प्रिय तक पहुंचाते
जब भी होता मन उदास, तड़पाता जब एकाकीपन
उर्जस्वित कर देता तन मन, तब मेरा निश्छल आलंभन


मैं अतीत के विस्मृत पल का, ह्रदय पटल पर चित्रण हूँ
मैं अव्यक्त भावनाओं, सपनों का सुमधुर सम्प्रेषण हूँ
ह्रद सागर में दबे ज्वार का, मैं उद्वेलित सिकता कण हूँ
मैं समाज के जन मूल्यों का मापक हूँ, इक दर्पण हूँ

मैं भिक्षुक की भूख, भ्रमर का गुंजन, शिशु की किलकारी हूँ
मैं चिरयौवना, सरस रस भावुक हृदयों की प्यारी हूँ
मैं प्रकृति का सौम्य रूप ,रमणी के अंतस की कोमलता हूँ
मैं अभिव्यंजना विचारों की, अहसासों की, मैं कविता हूँ


श्रीप्रकाश शुक्ल
मान्यवर : आदरणीय अचल जी द्वारा दिए गए वाक्याँश को ठीक तरह से न समझ पाने की स्थिति में एक झोंक में जो रचना बनी थी, आप सबके साथ बाँट रहा हूँ





सहायक सन्दर्भ :


अजगर करे ना चाकरी ------------


राम भरोसे जो रहें -----------------





कल की क्यों करते परवाह

यह चिंतन का प्रश्न अनूठा, कल की क्यों करते परवाह
बिन सोचे कल क्या होगा , क्या संभव है जीवन निर्वाह
बांछित है सार्थक चिंतन, जो चाहो, कल हो खुशहाल
पर चिंता और व्यग्रता डसते, जैसे हों बिष भरे व्याल


है मनुष्य सामाजिक प्राणी , जग से रहे अछूता कैसे
जीवन दिशा बदलनी होगी, चलती दिखे बयार जैसे
बिन सोचे अंजाम अगत का, काम जो कर जाते हैं
खोकर दिव्य अस्मिता, सालिग्राम बन जाते हैं


सबसे भले हैं मूढ़, युक्ति जो , तुलसी गुनकर बोली
खो बैठी औचित्य, महज़ बनकर रह गयी ठठोली
दास मलूका की सलाह में ,कुछ भी खरा नहीं है
पर्वत की चोटी पर भी, कुछ भी हरा नहीं है

दूर दर्शिता ही जीवन में , सही मार्ग दिखलाती है
अग्र सक्रियता आगे चलकर, जीवन गम्य बनाती है
चिंता त्याग, सही चिन्तन ,पथ प्रशस्त निश्चय कर देगा
जीवन होगा सुखद शांत, अनगिन खुशियाँ भर देगा


श्रीप्रकाश शुक्ल
काल की क्यों करते परवाह


काल की क्यों करते परवाह, न जानें कल क्या होगा
सारा सार इसी पल में है, ये संभला तो सब हल होगा
काल हमारे नहीं साथ, ये केवल मन का भ्रम है
परिवर्तन तो अटल , प्रकृति का निश्चित क्रम है

भूत भविष्य दोनों ही हैं, केवल मन की कल्पना मात्र
वर्तमान ही सोच अकल्पित, सत्य निरंतर, एकमात्र
जब वर्तमान की चिंता ही, होगी चिंतन का आधार
जीवन विकसेगा विविध रूप सहज सुगम इच्छानुसार

ऐसा कोई नहीं जगत में, काल जाल में जो न फंसा
कालांतर में कुटिल काल के , कटु चंगुल में जो न कसा
लेकिन वही शीर्ष पर पहुंचा, जिसने साहस, धैर्य न छोड़ा
बुद्धिबल पूर्ण विकल्पों से प्रतिकूल हवाओं को मोड़ा


क्यों डरते झंझावातों से, क्यों आश्रित रेखाओं पर
क्यों होते हतप्रभ निराश , जीवन की दुर्गम राहों पर
अंतरतम खोजो, समझो, सारी शक्ति निहित अन्दर
सब अभीष्ट पा सकते हो, बिना काल की चिंता कर


श्रीप्रकाश शुक्ल

कथ्य सन्दर्भ : भट्टा परसौल उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर में एक छोटा सा गाँव है . यहाँ किसानों की भूमि शासन द्वारा सस्ते मूल्य में लेकर ठेकेदारों को दे दी गई , न्याय मांगने पर उन पर लाठियां बरसायी गयीं .


आग अपने राग में भर


परसौल भट्टा की कहानी, बंद आँखें खोलती है
कहर खुद ढाती सियासत, अमन में विष घोलती है
जो थे समर्थक सत्य के, सत्ता के हाथों बिक गये
गगनभेदी स्वरों के भी, मुंह में ताले लग गये


पास में बस एक था, भूमि का निष्प्राण टुकड़ा
जिसमें गलाकर अस्थि-मज्जा, अन्न के दाने उगाते
और कोई भी नहीं, उपलब्ध था साधन सुलभ,
भूख जिस से शांत कर , निर्वसित तन ढांक पाते


कौड़ियों के मोल जब, छीनी गयी ये जीविका
और दुहाई न्याय की, लाठियां खाती रही
जूं न रेंगा कान पर, द्रौपदी की चीख सुन
पट्टी संभाले आँख की, सौबली गाती रही

सहसा उठा उद्गार मन में, इक नई हुंकार भर,
वेदना असहाय की, जो कह न पाए हो निडर
वो कापुरुष है, कवि नहीं, व्यर्थ माँ शारद का वर
धिक्कार उसकी चेतना, दाब से जो जाए डर

अब समय आया अपेक्षित, समय को पहचान ले
अवलेखनी बदलेगी दुनियां, ऐसा निश्चित मान ले
कवि धर्म का निर्वाह तब, अशआर छेड़ें नया स्वर
अन्याय धू धू जल उठे, तूं आग अपने राग में भर

श्रीप्रकाश शुक्ल

Sunday 5 June 2011

संभ्रम


क्यों खड़ा तू आज विह्वल,
हो प्रकम्पित स्वयं से डर
क्यों नहीं मिलती दिशा,
दिखती न क्यों चाही डगर


कौन है अनुबंध वो,
लिप्त तू  जिसमें अकारण
कौन वो नश्वर प्रलोभन,
कर रखा जिसको वरण


क्यों न पाता भूल तू,
मानस जनित अभिप्रीति वो
स्थायित्व जिसका कुछ नहीं ,
मात्र मृगजल भ्रान्ति जो


क्यों समझ बैठा है तू,
हो रहा है जो घटित
वो है नियति की बाध्यता,
पूर्व निर्धारित रचित


क्यों न सुन पाता तू,
क्रंदन, ह्रदय में जो उठ रहा
ओढ़ तम का आवरण
हतबुद्धि ,क्यों तू घुट रहा


उठ स्वयं अनुमान ले,
वो शक्ति जो अन्तर्निहित
चाहे, बदल दे नियति भी
तू बुद्धिजीवी प्रकृति कृति
 
श्रीप्रकाश शुक्ल

Friday 27 May 2011

भंग हुआ ज्यों सपना


झांसा देते रहे दोस्त को,
गढ़कर झूंठे नए कथानक I
भिक्षा में पाते जो टुकड़े ,
रचते उससे कृत्य भयानक II


आतंकी गतिविधियों से,
ढाया जग में नित्य कहर I
नीवं मित्रता की आधारित,
अविश्वास की रेती पर II


फिर जब समझे चतुर मित्र,
कैसे वो अब तक छले गए I
आ धमके डोली लेकर,
दूल्हा औ सामां ले चले गए II


सारा आवाम था हैरत में,
ठनकाता माथा अपना I
आँखें फटीं, फटीं, रह गयीं ,
भंग हुआ ज्यों सपना II

श्रीप्रकाश शुक्ल

चिरस्मरणीय मेरी माँ


गंगाजल सा पावन मन था
हिमगिरि सा व्यक्तित्व महान
शब्द नहीं जो कर पायें हम
अम्मा तेरा गौरव गान


तीर्थराज सा गरिमामय,
माँ था सानिध्य तुम्हारा
देव तुल्य वह "पूर्ण" रूप है
अब आराध्य हमारा


ओजभरी वाणी थी तेरी,
तेजमयी तन्वंगी काया
तेरी प्रतिभा और ज्ञान को
किस किसने न सराहा


अगर किसी ने कठिनाई में
द्वार तेरा खटकाया
खुली बांह से निर्मल मन से
उसे तुरत अपनाया


सोचा न कभी, है निजी कौन,
और है, कौन पराया
दुर्बल कन्धों पर भी तुमने
कितना बोझ उठाया


तेरे संरक्षण में पनपे
हम कितने बडभागी
पद चिन्हों पर चला करेंगे
हम तेरे अनुरागी


तेरी पावन स्मृति से होंगे
पंथ प्रशस्त हमारे
प्रेरक स्रोत हमारे होंगे
जीवन मूल्य तुम्हारे



श्रीप्रकाश शुक्ल
फूल ने सीखा महकना


फूल ने सीखा महकना , और बिखरायी सुरभि,
देता रहा आनंद नित , भूला न खिलना, खिलखिलाना
तारिकाएँ , बंध तिमिर भुज पांस में
आतना सह्तीं रहीं , पर न छोड़ा जगमगाना



अजानी राह जीवन की, कठिन , काटों भरी है
और गठरी फ़र्ज की, कमजोर कन्धों पर धरी है
मुश्किलों की आंधियां, आकर संजोया धैर्य हरतीं
टूटता विश्वास पल पल, मंजिलें गिरती, संवरतीं


पर तूं मानव बुद्धजीवी, अक्षम्य तेरा लडखडाना
पार कर अवरोध दुर्दिम, बस तुझे चलते ही जाना
टूट जाए तन, न टूटे मन, न छूटे मुस्कुराना
हर कृत्य फैलाए सुरभि, हर शब्द बन जाये तराना


याद तूं करले, उन्ही को याद करते है सभी,
निज स्वार्थ से उठकर, पराये काम करते जो कभी
सुन कहानी दर्द की, पीड़ा उमड़ कर बह निकलती
इंसानियत जिनके दिलों में, रोज उगती और पलती,


फूल ने सीखा महकना , और फैलायी सुरभि,
देता रहा आनंद नित,, भूला न खिलना, खिलखिलाना




श्रीप्रकाश शुक्ल

Wednesday 13 April 2011

किन्तु अचानक लगा

वैसे तो जंतर मंतर पर, भीड़ सदा ही रहती है
अश्रु कणों से गीली मिटटी, नित नयी कहानी कहती है
किन्तु अचानक लगा, वहां जो पहुंचे थे अप्रैल पांच को
मांग रहे थे, भारत भू पर, जला न पाए आंच सांच को

जीवन की हर गति विधि में भरपूर समाया दुराचरण
भ्रष्टाचार,कुटिलता, चोरी, लगते मानव को, सफल आचरण
सत्ता के नायक, नेता दिखते , जैसे हों मूक, बधिर
अपनी खाली जेबें भरते, मौका ऐसा, कब आएगा फिर


इस बार मनीषों ने मिलकर, इक युक्ति नयी मन में ठानी
चाहे प्राण न्योंछावर हों ,पर हो न सकेगी मनमानी
जनता और सांसद मिलकर, लोकपाल बिल लायेंगे
भ्रष्ट, दुराचारी तुरंत ही कठिन ताड़ना पायेंगे

श्रीप्रकाश शुक्ल


क्रिकेट विश्व कप विजय दिवस



आँखों देखा वृतांत है ये, क्रिकेट विश्व कप विजय दिवस का
विश्व विजय के स्वप्न संजोये, कर्मठता से गढ़े सुयश का
दो अप्रैल, भूमि भारत की, नगर मुंबई क्रीड़ा स्थल
दो हज़ार ग्यारह की घटना, कौतुक भरा जहाँ था हर पल

श्रीलंका के क्रिकेट खिलाडी, उत्कृष्ट, विलक्षण कौशल सज्जित
पांच देश की टीमें जिनसे, अब तक रहीं विफल,अविजित
वनखेड़े के खेल प्रसर में, एक बृत्त में खड़े हुए
दे रहे चुनौती थे भारत को, स्वाभिमान से भरे हुए


उपलब्धियां हमारी भी अपूर्व, समतुल्य रहीं प्रतिमानों में
विश्व विजय की प्रवल लालसा, पलती थी अरमानों में
श्रीलंका के कुशल खिलाडी, खेल चुके थे पहली पारी
दो सतक चौहत्तर रन लेकर स्कोर खड़ा था समुचित भारी

धोनी, सहवाग, सचिन, रैना और गौतम गंभीर
युवराज, शांत श्री, नेहरा, भज्जी, मुनाफ पटेल जहीर
ये खेल बाँकुरे भारत भू के,प्रति उत्तर में उतर पड़े
मन में था संदेह न किंचित, यद्यपि लगते आंकड़े बड़े


रण भेरी बजी, पलक झपकी, लसिथ मलिंगा टूट पड़ा
जब तक सहवाग संभल पाते, गहरा संकट हो गया खडा
पहिला विकिट गिर गया था, गौतम आ कर डट गये क्रीज़ पर
संकट गहराया और घना, जब आउट सचिन अठारह पर

गौतम, विराट अब खेल रहे थे, सामंजस्य प्रचुर था दोनों में
रन की बारिश घनघोर हो रही, होंसला प्रखर था दोनों में
पर यह खुशियाँ बिखर गयीं, जब विराट का विकिट गिरा
तिमिर छागया आँखों सन्मुख, पगतल से खिंचती दिखी धरा


धोनी ने सोचा मन में, आ पहुंची घडी समीक्षा की
बढते दवाव के रहते, खेलोचित धैर्य परीक्षा की
बोले, यूवी तुम रुको अभी, मैं ही आगे बढ़ जाता हूँ
इन निर्भय ढीट गेंदबाजों को जम कर मजा चखाता हूँ


कप्तान और गौतम की जोड़ी, भायी थी सब के ही मन
कप्तान दे रहा महज साथ, गौतम वरसाता जाता रन
तीन रनों की दूरी थी, एक शतक बन जाने में
पर थोड़ी सी चूक होगयी, जाने में अनजाने में

द्रुति गति गेंद पिरेरा की, जब मध्य विकिट से आ टकराई
विकिट गिर गया गौतम का परिसर में मायूशी छाई
और अचानक लगा नियति कुछ क्रूर होगयी
जीती मंजिल कठिन, तनिक सी दूर होगयी

लक्ष्य रहा जब शेष चार का, और बच रहीं ग्यारह बाल
धोनी, यूवी के चहरों पर, दिखा रक्त लेता उबाल
अगली आती हुयी बाल पर, जड़ दिया एक धोनी ने छक्का
झूम उठे सब भारतवासी, विश्व देखता हक्का बक्का

सुशिष्ट भाव से हम खेले, सम्पूर्ण विश्व के सभी दलों से
खेल भावना रही बलवती, बल अजमाए अन्य बलों से
यह कीर्तिमान था कर्मठता का, लगन और उत्कृष्ट कर्म का
देश प्रेम का, खेल प्रेम का, सहिष्णुता, मानवीय धर्मं का


ये खेल कहानी भारत की एक नयी प्रेरणा लाएगी
विश्व बंधेगा एक सूत्र ,प्रेम ज्योति लहरायेगी



श्रीप्रकाश शुक्ल

Friday 1 April 2011

भाषा और कथानक दोनों, अब बिलकुल स्पष्ट हैं




पिछले चौसठ वर्ष बिताये, हमने ऊहापोह में
सह अस्तित्व, शांति से जी लें, रहे सदा इस टोह में
पर ओ मेरे, देश पडोसी, तुमने सदा ईर्ष्या पाली
अविश्वास की आग जला, राख करी अपनी ख़ुशहाली


जब जब हमने बांह पसारी, हाथ दोस्ती का माँगा
तब तब तुमने छुरा भोंक कर, पीठ हमारी को दागा
एक तुम्ही हो बिन कारण जो, बीज घृणा के निशदिन बोते
आतंरिक समस्यायों के भी हल, तुमको नहीं सुलभ होते


भाषा और कथानक दोनों, अब बिलकुल स्पष्ट हैं
प्रतिद्वंदिता भरी हृदयों में, भाव प्रेम के नष्ट हैं
पर हम शुभचिंतक, शुभेच्छु, सत सम्मति निश्छल देंगे
पंचशील के सिद्धांतों को कालांतर तक बल देंगे



श्रीप्रकाश शुक्ल
जब भी मन पर छाये उदासी




सांसारिक जीवन क्रम चलता, जैसे चलता रहा प्रकृति क्रम,
पल उछाह, मायूसी ले, आते जाते, ऋतु परिवर्तन सम
जब भी चयनित मंतव्य हमारे, वांछित परिणाम नहीं लाते
होते हम, हतप्रभ, हतोत्साह, दुःख की दरिया में बह जाते


उचित यही, इन बिषम क्षणों में, रुकें, वस्तुस्थिति आंकें
जब भी मन में छाये उदासी , अपने अंतस में झाकें
पा एकाकी, स्वजन मित्र बिन, ये बादल छा जाते हैं
मन की शांति, धैर्य, प्रज्ञा सब साथ उड़ा ले जाते हैं


जब भी मन में छाये उदासी, समझो चित्त हुआ अस्थिर
जब पाओ नैराश्य विफलता, मानों विश्वास हटा निज पर
अनवरत करो निज नियत कार्य, सबल सोच परिप्रेक्ष्य पले
प्रतिकूल परस्थितियों में भी, ध्यान ध्येय से नहीं टले


 
श्रीप्रकाश शुक्ल

Monday 21 February 2011

आ सिरहाने रख जाते हैं


आ घेरें जब दुःख के बादल, और परिस्थितियाँ पाषाणी,
ओझल हो जब किरण आश की,जगत प्रभू सुधि में आते हैं
वसुर्वसुमना, दिव्यशक्ति सुन, अपने प्रिय की दुखभरी पुकारें
सुलभ, सुगम साधन के सपने, आ सिरहाने रख जाते हैं


बहुधा अतिशय प्रिय अपने , नियत कर्म के अनुबंधों में
छोड़ ह्रदय में टीस अनकही, हम से दूर चले जाते हैं
पर जब पाते प्रीति प्रतिध्वनि टकराती अपने कानों में
गठरी बाँध, प्रेम सन्देशे, आ सिरहाने रख जाते हैं


शैशव के अनुरक्ति सने पल, चित्रित होकर मनस पटल पर,
धीरे धीरे रिसते रिसते, अंतर में आ, सो जाते हैं
जब असीम सुख की लहरें, लेतीं हिलोर जीवन सरि में,
मेघदूत , वो पल आँचल भर, आ सिरहाने रख जाते हैं



वसुर्वसुमना- सब प्राणियों के निवास स्थान एवं उदार ह्रदय वाले


श्रीप्रकाश शुक्ल
कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे


कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे
चिंतनशील मनीषों ने राह चुनी समझे बूझे
दीमक दल सी कुरीतियाँ, खोखला कर रहीं थी समाज जब
रत रहे अनवरत जीवन भर, मिला न सार्थक हल जब तक
पथ था कंटकाकीर्ण दुर्गम, धाराएं प्रतिकूल बहीं
संकल्प भरे, खोजे विकल्प, मानी न कभी भी हार कहीं


छोटे राज्यों का जन शोषण, नारी को डसती सती प्रथा
सूदखोर के ऋण से दुखती, भूमिहरों की दुसह व्यथा
बाल  विवाह का भरकम बोझा, लदा हुआ कच्चे कन्धों पर
या फिर काले धंधों में, सराबोर वचपन के कर
अटल रहे अपने पथ पर,जब तक न खुले धागे उलझे
कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे


श्रीप्रकाश शुक्ल

Saturday 29 January 2011

शब्द नहीं बतला पाते हैं


भाव भरे कतिपय संवेदन, प्रिय के अंतर्मन से उठकर,
समरस हो, होते आच्छादित, अंतरिक्ष, भू, नभ  के ऊपर
और दूसरे छोर सुप्रिय की, उच्छवासों से जनित तरंगें ,
आत्मसात करतीं प्रयास बिन, मन में उठती सुखद उमंगें
इन लहरों में लेकर हिलोर , जो संदेशे आते हैं
                                        शब्द नहीं बतला पाते हैं

जब इन्द्रधनुष की शीतल किरणें, संतप्त कर रहीं हों बिरही मन,
दादुर की अनवरत पुकारें, गिरा रहीं हों संभला आँचल
युद्धभूमि से लौटा प्रियतम, पावस ऋतु की थकी सांझ को,
धीरे से आकर खटकाये बंद द्वार की बोझिल सांकल
इन ध्वनियों में घुलमिल कर, जो संदेशे आते हैं
                                       शब्द नहीं बतला पाते हैं

पलकों का गिरना, उठना ,या नटखट तिरछी चितवन,
या घूंघट में छुपे सुबकते, हों तरुणी के मृदुल अश्रुकन,
या फिर लेते विदा युगल का, पग पग पर रुकना मुड़ना,
या नन्ही अबोध बाला का, हाथ चिबुक रख, प्यार भेजना,
इन संकेतों में लुकछुपकर, जो संदेशे आते हैं
                                         शब्द नहीं बतला पाते हैं

श्रीप्रकाश शुक्ल