Sunday 5 January 2020

दुनियां की दुनियांदारी है 

विद्वता पूर्ण शायर कवियों की लगता है, मतिमारी है 

समझते हुए भी कहते है, दुनियां  की दुनियांदारी है 



कोई अब भी उलझाए हैं, बाला के केश जाल में लोचन, 
जब कि, यूं ट्यूब वीडियो की एक झलक, सब पर भारी है 



कोई तो नारी के तन को, इक मानचित्र समझे बैठे हैं 
अनजान जगह की तरह खोजना  पर्वत, नदियां जारी है  



कोई संवेदनापूर्ण दिल से आंक रहे हैं विविध व्यथाएँ ,
खुशियों के साथ उपजतीं हैं ये, जीवन एक उर्वरा क्यारी है   



कुछ एक,खेल प्रिय सृजनकार, राजनीति मेंं छक्के जडते,
शब्दों को उछाल माहौल बदलने मेंं, उनकी क्षमता न्यारी है 


अधिकांश न अब तक परिचित हैंं ड्रोन और रोबोट सेवक से,
किस तरह बढाकर हाथ जिन्होनें मेहनत हलकी कर डारी है ।


दुनियादारी छोड चुके हम, अब तो मजिल कहीं और है 
होड़ लगी है जगधारक से "श्री" उसकी निवृत्ति की तयारी है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
नव चेतना दे नया स्वर   
 
आते हुए नव वर्ष की हर भोर हो इतनी प्रखर 
झुलसा दे जो संकीर्णता, नव चेतना दे नया स्वर 

   देश की उज्जवल धरा पर, आज फिरआया कुहासा 
   विश्व असमंजस में है, कि ये ढा न दे कोई कहर 

    देश में जनतंत्र की आवाज़, नियमावलि बनाती  
    भूल हो जाए अगर तो, मिलबैठ करते बेअसर 

    हैं नीतियाँ स्थिर सदा से ,सौहाद्र और समभाव पर 
    खुलकर यहाँ पर बात होती प्रतिवाद में कोई न डर 
    
    कुछ विकृत सी मानसिकता स्वार्थ की चादर लपेटे 
    तरुणाई को भटका रही, क़ानून का अपमान कर 
 
    सागर से वृहत जनतंत्र में सामान्य ऐसी हलचलें,
    शीघ्र होगा "श्री "निवारण गतिशील होगी हर डगर 
     
    श्रीप्रकाश शुक्ल 







मजहबी अन्धापन

सम्भव नहीं कोई भी अन्धा कुछ भी कहीं देख पाये ।
अन्जान रहे सच्चाई से यदि ज्ञानचक्षु भी मुद जाये ।।

कुछ जन्मजात होते हैं अंधे कुछ अन्धे हो जाते हैं ।
मजहब, धन, ऐश्वर्य, ख्याति भी अन्धापन दे जाते हैं ।।

मजहब के अन्धे पहले अपनी सूझ बूझ बिसराते हैं।
फिर झूठे बहकावे मेंं आ घर मेंं अशान्ति फैलाते हैं ।।

ऐसी अशांति घर मेंं, समाज मेंं रूप उपद्रव का लेती है
दावानल होती क्रोधाग्नि, देश के दृढ़ खम्भे ढह जाते हैं

मजहब के अन्धे जन्मजात "श्री" कभी नहीं पाये जाते,
रखकर दूर इन्सानियत से, जैहादी शिक्षा मेंं पाले जाते हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल

देती भू पर मोती बिखेर

मीलों तक पसरा श्वेत शून्य 
झीलें, तलाव पूरे निमग्न हैं ।
पशु पक्षी छुप कर बैठे है
मानों जैसे प्रभु ध्यान मग्न हैं।।

हिम आच्छादित सूखे तरु
पंक्ति बद्ध हो खडे हुये हैं ।
लगता है बृह्मज्ञान जिज्ञासु
संकल्पित जिद पर अड़े हुये हैं।।

हिम पात होरहा है झरझऱ 
सड़कों पर हिम का लगा ढेर।
हे शीत ऋतु तू निर्मम है,पर 
देती भू पर मोती बिखेर।।

पड़ रही कड़ाके की सर्दी 
बस नानी  याद आरही है ।
पद चाल लग रही बहकी बहकी 
जैसे पृथ्वी कंप कंपा रही है ।।

 नीले अम्बर में कोहरा छाया
दिन है पर दिनकर नज़र न आया ।
यह परिदृशय है उत्तर पूरब का
" श्री" के न्याययुक्त🐱 स्थायी घर का ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
एक मित्र ने कहा अभी कुछ लिखकर भेजो, सोचा जो भी लिखा आपसे क्यों न.साझा कर लूं।
 परिदृश्य उभर जो आया उसने किया दुखी, पर विवेक बोला, क्यों न भेजकर
उसको मन के बोझ को हल्का कर लूं ।।

रचना प्रस्तुत है ।

क्या लिखूं कैसे लिखूं ?
क्या लिखूं कैसे लिखूं स्याही भी अब सकुचा रही है ।
जानती है वो कलम अन्दर, मौत बाहर बुला रही है ।।

राम का मन्दिर बने, आम सहमत हो गयी है ।
पर खेलती आंगन से सीता जबरन उठाई 
जा रही है ।।
 
झूठे उसूलों के पुलन्दे, खुलके बाहर आ गिरे हैं ।
देश का सम्मान और सम्पत्ति अब मिल बांट खायी जारही है ।।

घर पड़े टूटे अधूरे, शहजादे विकास अब यायावर हैं ।
सब्जियों की बात क्या, प्याज की थाली भी छीनी जारही है ।।

जो जी रहे थे पानी हवा पर वो भी नसीब से बाहर है ।
सोच रहा है "श्री" अब कैसी झांकी दिखाई जारही है ।।

 श्री
__._,_.___

Posted by: Shriprakash Shukla <wgcdrsps@gmail.com>
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__,_._,___

जो खुला आकाश स्वर मेंं

जो खुला आकाश स्वर मेंं भर, हमारे गीत सजते।
जो सजा विश्वास उर में, हम सभी मिल साथ चलते।।
तो कोई अवरोध पथ मेंं आ, हमें न रोक पाता ।
हो अप्रतिभ संकल्प से, पांव उल्टे लौट जाता ।।

खग बृन्द नभ में किस तरह, दूरी अनागत पार करते ।
समुदाय बतखों के सरों में, आनन्द से हिल मिल विचरते ।।
आत्मीयता का भाव जीवन में, सुखद अनुभूति लाता ।
समय कितना भी कठिन हो, हंसते गाते गुजर जाता ।।
 
मिलना जुलना सभी से, द्वेश की कुंजी रही है ।
मुस्कुरा के, हंस के मिलना, संजीवनी इक अनकही है ।।
सार सब धर्मों का "श्री," मेरी समझ मेंं यही आता ।
कर्मफल के हम रचयिता,भाग्य अपने के विधाता ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
नोट:  
सतत प्रयासों के झोंके निश्चय ही परिवर्तन लायेंंगे ।
आशान्वित हैं भावी पल कुछ ऐसा लिख पायेंंगे ।।

जो खुला आकाश स्वर मेंं
बांध बैठे हैं हम, जो खुला आकाश स्वर मे ं।
जिन्दगी अब गीत है, रुसवायियों की डगर मेंं ।।

माहौल बदला है यहाँ, स्वच्छन्द पत्ते ड़ोलते हैं,
कुहासे में नहीं पलता कोई तरु,  आजकल इस शहर मेंं ।।

लहलहाते खेत हैं, वादियों में फूल हैंं हर मोड़ पर,
खिलखिलाती निरख कलियां, उत्साह है हर भंवर मेंं ।।

न्याय संगत विविध निर्णय, हो रहे जिस तीब्रता से,
सारी दुनिया चकित है, क्या हो रहा इस नगर मेंं ।। 

पर्वत सी घृणा उर में, नहीं पाती है पोषक तत्व अब "श्री"
पिघलती जाती गल गल कर,भ्रातृत्व की उमड़ी लहर मेंं।।
  
श्रीप्रकाश शुक्ल

नोट:  
सतत प्रयासों के झोंके निश्चय ही परिवर्तन लायेंंगे ।
आशान्वित हैं भावी पल कुछ ऐसा लिख पायेंंगे ।।

जो खुला आकाश स्वर मेंं
बांध बैठे हैं हम, जो खुला आकाश स्वर मे ं।
जिन्दगी अब गीत है, रुसवायियों की डगर मेंं ।।

माहौल बदला है यहाँ, स्वच्छन्द पत्ते ड़ोलते हैं,
कुहासे में नहीं पलता कोई तरु,  आजकल इस शहर मेंं ।।

लहलहाते खेत हैं, वादियों में फूल हैंं हर मोड़ पर,
खिलखिलाती निरख कलियां, उत्साह है हर भंवर मेंं ।।

न्याय संगत विविध निर्णय, हो रहे जिस तीबृता से,
सारी दुनिया चकित है, क्या हो रहा इस नगर मेंं ।। 

पर्वत सी घृणा उर में, नहीं पाती है पोषक तत्व अब "श्री"
पिघलती जाती गल गल कर,भ्रातृत्व की उमड़ी लहर मेंं।।
  
श्रीप्रकाश शुक्ल
जो खुला आकाश स्वर मेंं

जो खुला आकाश स्वर में स्वच्छंदता से गूंज पाता ।
सो रहे आलस्य से जो, झकझोर कर उनको  जगाता ।।
फिर उठ रहे हैं जो कदम दुर्भावना के द्वेश मेंं ।
निर्मूल कर उनको सहज सदभाव का विस्तार लाता ।।

मुंह पर लगे ताले, रुह को झकझोरते हैं ।
ज्वाल उठता हृदय मेंं मन का संयम तोड़ते हैंं ।।
कितना कठिन है देश की तरुणाई को  बांध रखना .
समझ पाती जो सियासत, सरल होता शान्ति रखना ।।

बात छोटी भले हो, पर शीघ्र बनती एक बबन्डर ।
एक चिनगारी लगाकर राख करती 
सैकड़ों घर ।।
पूर्व आग्रह  उमड़कर  प्रतिशोध की ज्वाला जलाते ।
इक शान्त वातावरण को  रणभूमि की संज्ञा दिलाते  ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
जाल सन्नाटे निरन्तर बुन रहे हैं

आज अपनी गफलतों पर, हम सभी  सर धुन रहे हैं 
क्या पता था, जाल सन्नाटे निरन्तर बुन रहे हैं ।।

असहिष्णुता का रोग जग में, आज अपने चरम पर है
और हम इसको भुला वर्चस्व का पथ चुन रहे हैं।।

सम्पत्ति, सुख साधन अकेले, शान्ति दे सकते नहीं
सद्भाव, मीठे बोल और सदव्यवहार ही सदगुन रहे हैं ।।

देश के कर्मठ तरुण,अब प्रतिभा परीक्षण में जुटे हैं
परिणाम होंगे दूरगामी. मनीषियों से  सुन रहे हैं ।।

विज्ञान से सम्भव है, बस में शक्तियां दैवीय हों  "श्री"
पर उनके गलत उपयोग से परिणाम दुख दारुन रहे हैं ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
तुम मुझको जगाकर जगमगाओ

देश के मैं साथ हूँ प्रगति पथ पर, फर्ज़ बस इतना निभाओ।
जो पंथ में झपकी लगे, तुम मुझको जगाकर जगमगाओ।।

काटों भरा था रास्ता, अपनों ने ही कांटे बिछाये ।
अब भी भ्रमित है मानसिकता, आकर उन्हें सत पथ दिखाओ।।

ये बुलावा उनको है, हैं जो घर के सजग प्रहरी
रख प्रेम के बल पर भरोसा, रूठे हुओं को आ मनाओ ।।

दिलों को जोड़ पाता है नहीं, तर्क से जीता हुआ मसला,
जरूरत है मोहब्बत से सनी, कोई भी हिकमत आजमाओ।।

लाज़िमी है अहं से उठकर सभी, बड़प्पन खुद का दिखलायेंं
गफलत से, विखर जायेगा घर, मत बेबजह मौका गंवाओ ।।

 श्रीप्रकाश शुक्ल

देखकर हैरान होते 
जिस तरह फैला हुआ है आज सारे जग मेंं गम,
देखकर हैरान होते, डगमगाता हर कदम ।।

आपदाएं प्राकृतिक और कुछ खुद की रचीं 
फैला रहीं सुरसा सा मुंह, ह़ोतीं नहीं  हरगिज़ भी कम ।
 
सारे. मनीषी जानते हैं ,दुख का कारण.है क्या  ,
तीन तापों के जनक और मुख्यतःकारण, हैं हम।।

गल्तियां करते हैंं हम, अज्ञानवस या हो अचेतन
पालते  इच्छाएं अनगिन.कम न होता जिनका क्रम

आनन्द से गुजरे ये जीवन,  है मात्र साधन एक ही " श्री"" 
 सच में जियो ,छोड दो, हो धन पै निर्भर सुख से जीने का भ्रम

श्रीप्रकाश शुक्ल

यह अपनी अपनी किस्मत है 

कोई गोताखोर सहज ही सागर मेंं मोती पाता है ।
वहीं दूसरा सागर तल में पत्थर से टकरा जाता है ।।
 
कोई तैराक सरलता से ही, नदी पार कर जाता है ।
वहीँ दूसरा भंवर मेंं फंस कर अपनी जान गंवाता है ।।

कहते कोई कारण होगा, यह अपनी अपनी किस्मत है ।
किसी के तारे डूबे हैं, कोई रब की रहमत पाता है ।।

पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण, इस मत को नहीं  मानता.है ।
कहता कर्म, कला, कौशल का इन सबसे गहरा नाता है ।।

ग्रहदशा, हस्त रेखाएं जो किस्मत इंगित करतींं हैं ।
इक कर्मवीर उनको झुठला कर अपना मार्ग बनाता है ।।

अपने प्रिय चन्दा मामा, जो सागर मेंं हलचल करते थे।
"प्रज्ञान" आज उनके घर बैठा पल पल का हाल बताता है ।।

पुरुषों के अलावा अन्य जीव जो प्रकृति गोद मेंं पलते हैं ।
किस्मत की बदौलत उनके जीवन मेंं अन्तर ख़ास नहीं आता है ।।

हां, किस्मत को कारक कहने से शान्त्वना भाव मन आता है ।
पर ये केवल मन का भ्रम है, कारण सही न मिल पाता है ।।

जो किस्मत पै भरोसा रखना चाहेंं, रक्खेंं कोई हर्ज़ नहीं। 
पर पुरज़ोर कर्म करने मेंं ही "श्री" जीवन का सुख आता है ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल

प्यार का पट खोलता है

मुंंडेर पर बैठा कबूतर का जोड़ा गुटरगूं गुट बोलता है ।
हिय में जगाता टीस सी, प्यार का पट खोलता है।।

नभ से छिटककर चांदनी आंगन में आ जब पसरती है ।
याद प्रीतम की दिलाती, बिरहिन का तन मन डोलता है ।

सर मेंं थिरकतींं मछलियां लहरों के संग जब खेलतीं हैं 
परिदृश्य सुधि में ला विगत पल, प्यार का रस घोलता है

अतिशय मधुर है जिन्दगी मेंं, प्यार के पट खोल जीना,
ऐसे जीवन को जगत, स्वर्ग सम ही तोलता है ।।

जो हृदय तज द्वेश ईर्ष्या अहं "श्री". सौहार्द का अनुसरण करता, 
वो साफ सुथरे तन में रह कर प्यार का पट खोलता है ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
प्राण मेंं मेरे समायी

यह भूमि, वीरों ने जहाँ, रीति कुछ ऐसी निभायी ।
देश प्रति निष्ठा सदा, जो प्राण मेंं मेरे समायी ।।

दिल दहलता याद कर राणा की वो कुरवानियां । 
भूखे बच्चों को जहाँ घास की रोटी खिलायी ।।

धन्य है वो पन्ना धाई, वन्दनीया नित्यप्रति।
देश की रक्षा को जिसने, अपने शिशु की वलि चढ़ाई ।।

नमन गुरुगोविंद को, दी जिन्होंने चार पुत्रों की शहादत।
चुन गये दीवार दो, अश्रु पूरित आंख
पर झुकने न पायी ।।

है अचम्भित जानकर "श्री" ऐसी पावन भूमि मेंं ।
पलते रहे जयचंद कैसे, शत्रु संग जिनकी सगाई ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
प्राण मेंं मेरे समायी

ओ जगत के रचयिता, कृति न तेरी 
समझ आयी।
पर अप्रतिम रचना की छवि प्राण मेंं मेरे समायी ।।

चर अचर तूने रचे, सागर रचे, नदियां रचीं 
और मुखर या मौन भर दी, विविध रंग की रोशनायी ।।

भावना के खेल मेंं तूने गढ़ी, इक अज़ब सी चतुरता ।
प्रीति मेंं भय, विश्वास मेंं सन्देह भर, मिलन के संग दी जुदाई ।।

नभ में भरा विस्तार अपना, दी धरणि को धैर्यता ।
प्रकृति मेंं भर सहिष्णुता, इक विशद महिमा सजायी।।

है असम्भव समझना "श्री" किस तरह करता सृजन तू ।
ब्रम्हांड मेंं सबसे अलौकिक, दुरुह है तेरी खुदायी  ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल
ंं
स्वर मिला स्वर मेंं तुम्हारे

स्वर मिला स्वर में तुम्हारे, नहीं गाया जाएगा ।
आने वाला समय हम पर, उंगलिया उठाएगा ।

छल छिद्र से परिपूर्ण सारे दिख रहे निर्णय तुम्हारे ।
विश्वास ही जब उठ रहा, सौहाद्र क्या बच पायेगा ।।

पारस्परिक स्नेह और सम्मान ही, एकता का मूल है ।
जब हैं यही  दिल से नदारत, अपनत्व कब बन पायेगा 

जाति के सपने सुनहरे, छल रहे हैं मानविकता ।
जब लुप्त होगी मनुजता तो शेष क्या रह जायेगा ।।

आओ सपथ लें साथ मिल, बटने न देंगे जाति, भाषा धर्म पर "श्री"
इक्किस सदी का युवा अब पहिचान नव बनायेगा ।। 

श्रीप्रकाश शुक्ल

स्वर मिला स्वर में तुम्हारे

चाह थी इक स्वर मिला स्वर मेंं तुम्हारे गीत गाऊं ।
छेड नव तानें मधुरतम, इक नयी सरगम सजाऊं ।।
 
संकल्प था जो भी तुम्हारी चाहतेंं मुझसे रहींं ।
पूर्ण कर जैसींं अपेक्षित, चिर प्यार का वरदान पाऊं ।।

चाहत नहीं थी कभी भी, एक सपनों का महल हो ।
एक छोटा नीड़ चाहा, रूठो जहाँ तुम मैं मनाऊं ।।

संतुष्ट हूं शिकवा न कोई, पर जिन्दगी सार्थक बने जब ।
उदास चहरे पर किसी के खुशी की एक लहर लाऊं।।

घर घर में फैली असहिष्णुता, आज चिन्ता का विषय "श्री"
कौन सी संजीवनी ला  सोचता इसको मिटाऊं ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल

 
बूँद भर जल बन गया

आज नहीं कुछेक दशक से जल संकट छाया भारत में ।
एक बूंद भर जल बन गया जीवन दाता भारत में ।।

पृथ्वी पर जल का स्रोत कहाँ सोचा न समग्रता से हमने ।
नदी सरोवर सागर समझे, जो जल के धाता भारत में ।।

जल प्रदायिनी तो वर्षा है, भरती पृथ्वी का आँचल जो ।
धरती की कोख पड़ी सूखी, हुआ
अधिक दोहन भारत में ।।

नभ को स्नेह बड़ा धरती से यद्यपि दूरी, पर चाहत पूरी ।
प्यासी धरती की हर एक तपन को आकाश बुझाता भारत में ।।

तपती धरती बोली नभ से, प्रिय आओ, देह समा जाओ ।
नभ बोला मात्र देह ही क्यों देही भी तृप्त करो भारत में ।

मैं तो रहा प्रतिपल तत्पर करने को समर्पण पूर्ण रूप ।
पर भौतिकता के लालच में सम्पर्क बिगाड़े भारत में ।।

कुए नदी पाटे मानव ने बृक्षों को काट सपाट किया ।
अब कौन संदेशा प्रिये तुम्हारा,पंहुचाये हम तक भारत में ।।

अमृत सम जल का संरक्षण,संचय, हैं दोनों ही मूल्यवान ।
मितव्ययता से भोग करें, समभागी  बन बांटें भारत में ।।

 वातावरण संतुलन एवं वर्षा जल का संग्रह "श्री"
जल आपूर्ति दिशा में होंगे, अति उपयोगी भारत में ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल

बूँद भर जल बन गया 
 
बूँद बूँद भर जल बन गया, आज अनल से भी बढ़कर
निर्धन जनता को रुला रहा है, जन सम्पत्ति तहस नहस कर

जो प्रासादों में रहते हैं, उन पर चलता कोई जोर नहीं ।
जो पेट पालते सड़क किनारे, आश्रय उनके ले गया बहाकर ।।

नदियों से सांठ गांठ कर जल ने ऐसा निर्मम खेल रचा । 
रुद्र रूप ले टूटीं नदियाँ, कैसे कोई रख सके बचाकर ।।

त्राहि त्राहि हो रही असम में, मुम्बई भी छूटा नहीं अछूता ।
 उत्तर बिहार के संकट ने तो, रख दिये सभी के दिल दहलाकर  ।।

ये स्थिति नहीं मात्र इस सन की हर वर्ष यही हालत होती है ।
है जिनको हमने दायित्व दिया "श्री "वो छुप जाते हैं मुंह दुबकाकर ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल