Thursday 14 July 2011

मैं कविता हूँ


कोई कहता मैं जन्मी हूँ , विरही की दुःख भरी आह में
कोई मानता जन्म हमारा , प्रियतम की अनथकी चाह में
कुछ भी हो, पर यह निश्चित है, जो कोई भी जनक हमारा
मैं दोनों की शांत प्रदाता, मैं दोनों की आँख का तारा


मेरा ही आश्रय पाकर , विरह गीत मुखरित हो जाते
आँचल में भर प्रेम संदेशे, प्रिया और प्रिय तक पहुंचाते
जब भी होता मन उदास, तड़पाता जब एकाकीपन
उर्जस्वित कर देता तन मन, तब मेरा निश्छल आलंभन


मैं अतीत के विस्मृत पल का, ह्रदय पटल पर चित्रण हूँ
मैं अव्यक्त भावनाओं, सपनों का सुमधुर सम्प्रेषण हूँ
ह्रद सागर में दबे ज्वार का, मैं उद्वेलित सिकता कण हूँ
मैं समाज के जन मूल्यों का मापक हूँ, इक दर्पण हूँ

मैं भिक्षुक की भूख, भ्रमर का गुंजन, शिशु की किलकारी हूँ
मैं चिरयौवना, सरस रस भावुक हृदयों की प्यारी हूँ
मैं प्रकृति का सौम्य रूप ,रमणी के अंतस की कोमलता हूँ
मैं अभिव्यंजना विचारों की, अहसासों की, मैं कविता हूँ


श्रीप्रकाश शुक्ल
मान्यवर : आदरणीय अचल जी द्वारा दिए गए वाक्याँश को ठीक तरह से न समझ पाने की स्थिति में एक झोंक में जो रचना बनी थी, आप सबके साथ बाँट रहा हूँ





सहायक सन्दर्भ :


अजगर करे ना चाकरी ------------


राम भरोसे जो रहें -----------------





कल की क्यों करते परवाह

यह चिंतन का प्रश्न अनूठा, कल की क्यों करते परवाह
बिन सोचे कल क्या होगा , क्या संभव है जीवन निर्वाह
बांछित है सार्थक चिंतन, जो चाहो, कल हो खुशहाल
पर चिंता और व्यग्रता डसते, जैसे हों बिष भरे व्याल


है मनुष्य सामाजिक प्राणी , जग से रहे अछूता कैसे
जीवन दिशा बदलनी होगी, चलती दिखे बयार जैसे
बिन सोचे अंजाम अगत का, काम जो कर जाते हैं
खोकर दिव्य अस्मिता, सालिग्राम बन जाते हैं


सबसे भले हैं मूढ़, युक्ति जो , तुलसी गुनकर बोली
खो बैठी औचित्य, महज़ बनकर रह गयी ठठोली
दास मलूका की सलाह में ,कुछ भी खरा नहीं है
पर्वत की चोटी पर भी, कुछ भी हरा नहीं है

दूर दर्शिता ही जीवन में , सही मार्ग दिखलाती है
अग्र सक्रियता आगे चलकर, जीवन गम्य बनाती है
चिंता त्याग, सही चिन्तन ,पथ प्रशस्त निश्चय कर देगा
जीवन होगा सुखद शांत, अनगिन खुशियाँ भर देगा


श्रीप्रकाश शुक्ल
काल की क्यों करते परवाह


काल की क्यों करते परवाह, न जानें कल क्या होगा
सारा सार इसी पल में है, ये संभला तो सब हल होगा
काल हमारे नहीं साथ, ये केवल मन का भ्रम है
परिवर्तन तो अटल , प्रकृति का निश्चित क्रम है

भूत भविष्य दोनों ही हैं, केवल मन की कल्पना मात्र
वर्तमान ही सोच अकल्पित, सत्य निरंतर, एकमात्र
जब वर्तमान की चिंता ही, होगी चिंतन का आधार
जीवन विकसेगा विविध रूप सहज सुगम इच्छानुसार

ऐसा कोई नहीं जगत में, काल जाल में जो न फंसा
कालांतर में कुटिल काल के , कटु चंगुल में जो न कसा
लेकिन वही शीर्ष पर पहुंचा, जिसने साहस, धैर्य न छोड़ा
बुद्धिबल पूर्ण विकल्पों से प्रतिकूल हवाओं को मोड़ा


क्यों डरते झंझावातों से, क्यों आश्रित रेखाओं पर
क्यों होते हतप्रभ निराश , जीवन की दुर्गम राहों पर
अंतरतम खोजो, समझो, सारी शक्ति निहित अन्दर
सब अभीष्ट पा सकते हो, बिना काल की चिंता कर


श्रीप्रकाश शुक्ल

कथ्य सन्दर्भ : भट्टा परसौल उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर में एक छोटा सा गाँव है . यहाँ किसानों की भूमि शासन द्वारा सस्ते मूल्य में लेकर ठेकेदारों को दे दी गई , न्याय मांगने पर उन पर लाठियां बरसायी गयीं .


आग अपने राग में भर


परसौल भट्टा की कहानी, बंद आँखें खोलती है
कहर खुद ढाती सियासत, अमन में विष घोलती है
जो थे समर्थक सत्य के, सत्ता के हाथों बिक गये
गगनभेदी स्वरों के भी, मुंह में ताले लग गये


पास में बस एक था, भूमि का निष्प्राण टुकड़ा
जिसमें गलाकर अस्थि-मज्जा, अन्न के दाने उगाते
और कोई भी नहीं, उपलब्ध था साधन सुलभ,
भूख जिस से शांत कर , निर्वसित तन ढांक पाते


कौड़ियों के मोल जब, छीनी गयी ये जीविका
और दुहाई न्याय की, लाठियां खाती रही
जूं न रेंगा कान पर, द्रौपदी की चीख सुन
पट्टी संभाले आँख की, सौबली गाती रही

सहसा उठा उद्गार मन में, इक नई हुंकार भर,
वेदना असहाय की, जो कह न पाए हो निडर
वो कापुरुष है, कवि नहीं, व्यर्थ माँ शारद का वर
धिक्कार उसकी चेतना, दाब से जो जाए डर

अब समय आया अपेक्षित, समय को पहचान ले
अवलेखनी बदलेगी दुनियां, ऐसा निश्चित मान ले
कवि धर्म का निर्वाह तब, अशआर छेड़ें नया स्वर
अन्याय धू धू जल उठे, तूं आग अपने राग में भर

श्रीप्रकाश शुक्ल