Thursday 6 March 2014

मुग्ध होकर फिर निहारूं

चिर प्रतीक्षित प्रणय का मौसम सुहाना आज आया 
तरुणाई बंधन तोड़ बहकी, तन मनस उन्माद छाया 
सोच कलुषित हुयी धूमिल,सद्भाव आकुल उमड़ आया 
आँचल धरा का प्रेम विह्वल,ऋतुराज ऐसा गज़ब ढाया 

आमोद भरते खेत मन में, खिलखिलातीं बालियां 
नव गात नव पल्लव कुसुम नव,अंग धारे डालियाँ 
ओढ़ चुनरी पीत वर्णी सजी सरसों कामिनी सी 
बंधकर कली अलि पाश में,छटपटाती अनमनी सी 

तत्व पाँचो आज मोहक रूप ले, विकसित धरा पर 
पवन पावक मंद शीतल,गगन उज्ज्वल जल मधुर  
भूमि पसरी अमित छवि,नभ में दमकते दिव्य विधु
मुग्ध होकर फिर निहारूं, तेरा विलक्षण सृजन प्रभु 

श्रीप्रकाश शुक्ल  

जिसे तुम समझे हो अभिशाप 

कलुष मानसिकता से उपजी कैसी ये धारणा विशेष 
युग युग से जो  ही पनपती मौन रहा सारा परिवेश 
बेटा ही सन्तति चालक, बेटा ही कुल का संरक्षक  है 
बेटी का भ्रूण मात्र  जैसे,  अंतस में सोया तक्षक है 

कितनी भारी सी ये भूल जिसे तुम समझे हो अभिशाप   
बेटी शक्ति स्वरूपा दुहिता, हरती जो सब का संताप   
जिसकी कुशाग्रता, कर्मठता का है सब को संज्ञान 
मानवीय मूल्यों का जिसने ,रखा अक्षुण सम्मान  

ऐसी विधि की रचना को बोझ कोई  कैसे कह सकता 
बन कुरीतियों का शिकार कब तक समाज चुप रह सकता 
आज समय की मांग यही, नारी का दमखम पहचानें   
नारी में भरे शौर्य सागर का, अथाह गहरापन  जानें     

श्रीप्रकाश शुक्ल 
किस रूप की सम्मोहनी

किस रूप की सम्मोहनी ने जाल ये भू पर बिछाया 
कण कण हुआ सौंदर्य रंजित जैसे हो दैवीय  माया  
भोर की रवि रश्मियाँ ने प्रकृति में आह्लाद लाया  
उन्मत्त तरुवर झूम उट्ठे खग बृंद ने मृदु गीत गाया 

सरिता, सरोवर हो मुदित  हठखेलियाँ सी कर रहे 
फूले कमल, अलि भूल रस, हर्षित किलोलें भर रहे 
जलचर मगन, बहु प्रीत से घन अम्बु भू पर झर रहे 
उर उल्लसित, पा इक झलक जन जीव प्रज्ञा हर रहे 

कीलाल बिन तड़ित्वान् के टुकड़े बिचरते गगन में 
ऐसे लगें जैसे कि अनगिन हंस हों उड़ते मगन में 
रूप की सम्मोहनी ने, क्षिति बदन प्लावित किया 
सानिद्ध्य देकर जगत को अनुताप सारा हर लिया 

श्रीप्रकाश शुक्ल 


कौन मन के दर्पण में

देह आत्मा के बंधन को त्रिगुण सदा संचालित करते   
गुणानुसार मानवीय प्रकृति में खट्टे मीठे रस भरते 
किसी तरह चलती थी नौका धीरे से हिचकोले लेती    
जीवन के नियत पड़ावों को छूती रूकती संबल देती    

अरे कौन मन के दर्पण में सहसा आज हुआ प्रतिबिंबित  
अनुभूति प्रेम की सहज उठी अंतस हो उठा स्वयं दीपित  
करुणा के अंकुर फूट पड़े, पर सेवा भाव हुआ  विकसित 
हृद  सागर शांत प्रशांत हुआ, लहर ज्ञान की उद्वेलित 

ये कृपा दृष्टि है प्रभु की, या फिर  निखरे पुण्य विगत के 
या रज, तम  को कर निरस्त, सत गुण हावी हुए उछलके  
जो भी हो आराद्ध्य हमारे आज मेरे मन मंदिर में स्थित 
जिनको बिन देखे रहे विकल और राह जोहते हुए व्यथित

श्रीप्रकाश शुक्ल 
कौन मन के दर्पण में


अरे कौन मन के दर्पण में, बार बार टुक टुक करता है 
सुधियों की चोंचों से चोटिल, मन में आ पीड़ा भरता है 
क्रूर नियति के हाथों में, क्यों नहीं समर्पण करता है 
अनबुझी मिलन की चाह लिए,जाने क्या ढूँढा करता है 

दुनियाँ स्वप्नों सी टूट गयी थी, जब पंछी पथ छोड़ चला 
अश्रु भरे दृग रोक न पाये, फिर कौन रोकता  उसे भला 
सोचा था समय संभालेगा, कालान्तर विगत भुलायेगा 
मौसम कैसा भी रहे मगर, अब पंछी लौट नहीं आयेगा  

पर पहली वर्षा की सौंधी सुबास, आसान न होती बिसराना  
पहली छुवन पांच पोरों की, सम्भव नहीं सहज मिट पाना 
कितना भी गहरा संयम हो, वो दर्पण सुधियों में आता है 
जहाँ धरा हो चित्र स्वयं का, पंछी मन वहाँ दौड़ जाता है  

श्रीप्रकाश शुक्ल