Tuesday 21 February 2012


कितना प्यार तुम्हें करता हूँ

पावों की पैंजन की रुन झुन,
दवे पाँव चौके से चल,
मेरी खिड़की के द्वार खोल,
चुम्बन सी करती कपोल,
आ सहलाती कर्ण युगल ;
अधखुली उनींदी आंखे मल,
अलसाए तन को बटोर
ले प्राण तुम्हारा मधुर नाम,
मैं पग धरती पर धरता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ


प्राची की इक अरुण किरण सी,
अभिलाषा भर आँचल में
अधिकार सहित तुम कर प्रवेश
मेरे अंतस के हर अणु में,
अधबुझी प्यास
अनुरत अधरों की,
बरबस उड़ेल ही देती हो ;
तुम, अभिमान मेरे प्राणों की,
तुम पर निसार सब कुछ करता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ


अध्ययन को पुस्तक जब खोलूँ,
शब्द शब्द धूमिल होते ,
ना जाने क्यों , बेचैन नयन
अपनी चेतन प्रज्ञा खोते
प्रष्ठ प्रष्ठ पर दिखती हो तुम,
मुझको करती सी प्रणाम ;
बस पुस्तक फेंक,
घेर हाथों में,
तुम्हें अंक में भरता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ

श्रीप्रकाश शुक्ल

प्रीत का पथ रोकने अवरोध बहुतेरे यहाँ


प्रीत का पथ रोकने अवरोध बहुतेरे यहाँ,
  अवरोध, जो, श्रम कर बैठाए, स्वयं तुमने
      प्रीत पथ, सरिता सरीखा चाहता निर्बाध बहना,
          पाषाणवत ऊंचे शिखर, पथ में उगाये स्वयं तुमने

धर्म, वर्ण, जाति के अपशिष्ट अनचाहे कहर,
   रंग , भाषा भेद के व्यतिरेक आड़े और टेढ़े
      असमानता की उग्रता पौड़ा रही विषबेल ही,
          स्वायत्तता की मांग जनती, नित्य ही दूभर बखेड़े

जिन्दगी का ध्येय सच्चा, हम रहें चाहे जहां
   सद्भाव की सरिता बहे, दुःख दर्द मिल कर बाँट लें
      आंसू पराया, आ छलक जाये हमारी आँख में
         पीर सीने में उठे, दुःख रही जो, दूसरे की कांख में

प्रीत का पथ मांगता समता, समझ, संवेदना
    सदभाव से दुर्भाव को निर्मूल कर आगे बढ़ें
        शूल से चुभते हुए अवरोध अनगिन खोदकर,
              डाल मट्ठा मूल में कौटिल्य सी क्षमता गढ़ें


श्रीप्रकाश शुक्ल


वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा


मैं अकेला ही चला था, जिन्दगी की उस डगर पर
   कांटे बिछाए खड़े थे, अनगिनत अवरोध जिस पर
        फंस कुहासे में गयीं मुरझा, सभी आशा लताएँ
           दूर मंजिल हो गयी , सन्मुख खडी थी विषमताएं

हारकर थक चूर हो, जब कभी तुमको पुकारा
   पास, देखा, तुम खड़े थे दृष्टि का पाकर इशारा
         मेरी सिसकती वेदना ने, स्पर्श जब पाया तुम्हारा
             हो विकल तुम रो रहे थे भर ह्रदय, मन, मोह सारा

कैसा अजब वन्धन है ये, भक्त और भगवान का
    ईश भी होते है व्याकुल , देख दुःख इंसान का
           जब कभी भर प्रेम आंजुर , हम चढ़ाएंगे उसे
               यह सुनिश्चित है सदा ही , साथ पायेंगे उसे

श्रीप्रकाश शुक्ल

















Friday 3 February 2012


जो लिखा हाथ की रेखाओं में

जो लिखा हाथ की रेखाओं में, सच पूछो गुमराही है
    प्रारब्धों की बैसाखी ले , क्या मंजिल मिल पायी है ?
        तुम कर्मवीर, हो कर्म निरत, रेखाएं नई उभर आयेंगीं
             पुरुषार्थ विटप काटो छांटो, शाखाएँ नई बिखर जायेंगीं

याद करो वो अग्रजात , थे ज्ञान, कर्म, तप की जो खान
   गीत बद्ध वेदों में अंकित, जिनके पौरुष, बल, कीर्तमान
       रेखाएं बदलीं अशेष, रह कर्म योग प्रति पूर्ण समर्पित
            लक्ष्य साध, मंजिल पायी, जीवन था संगरहित अर्पित

अनुसरण हस्त रेखाओं का, करते केवल आलस्य भरे
    निष्क्रिय और निरुत्सुक रह, जीवन में रहते डरे डरे
        सही मंत्र जीवन का है. जब तक प्राणों में स्वांश रहे
              स्वकर्म रहे अभिरत मानव, जीवन सरिता निर्वाध बहे



श्रीप्रकाश शुक्ल