Friday 29 April 2022

एक अंगारा एक अंगारा कि जिसमें हो धधकती आग,अपने देशहित कुछ कर गुजरने की वही निष्क्रिय करेगा तिमिर नफरत का, जगाकर चाहतें सद्भाव भरने की विचारों की विषैली फसल ऐसी उगरही है, देश के हर एक कौने में जिसको सींच कर,परिपक्व कर, है होड़ सब की, फित़रतें भदरंग करने की तल्लीन हैं, अनगिन तथाकथ बुद्धिजीवी स्वयं के स्वार्थहित, जनता भ्रमित करने चाहिए बस एक अंगारा, जो ग़ंगापुत्र सी ले प्रतिज्ञा, एकता अक्षुण्य रखने की हमारे पूर्वजों ने सतत ही मातृत्व का दर्जा नवाजा देश की अस्मिता को बन्धुत्व के इस भाव से ही हम सदा तत्पर रहे, ले चाहतें एकबद्ध करने की देखता विस्मय से "श्री" घातक है कितनी लालसा वर्चस्व की, जो घ्रणा को जन्म देती हम चाहते, लेकर सभी को साथ सच की राह चल आश्वस्तता से शिखर चढ़ने की श्रीप्रकाश शुक्ल</i>
भीख किनारों की जीवन इस संसार मध्य ऐसे है, जैसे नौका सागर में हो स्वयं खेहना पड़ता है चाहे कितनी भी बड़ी बिरादर हो नौका बिहार सुख देता है जब तक लहरें शान्त रहें विपदाओं के तूफानों में भी, गति जब नहीं असंतुलित हो मंजिल तक आते आते जीवन की शाम आ पहुंचतीं है नौका हिलोर लेने लगती जब भोतिक साधन परिसीमित हो ऐसे में भीख किनारोंं की रखना, क्या अपनों से न्यायोचित है जब वो खुद भी बीचधार में हों और तूफानों की आशंका हो अनुभवी मनीषी बतलाते है "श्री" विश्वास स्वयं पर अति उत्तम है कौई तो राह निकल आती है यदि मनसूबों में ढ़ील न हो। श्रीप्रकाश शुक्ल
जीवन.एक क्रीड़स्थल मानव जीवन इक क्रीड़ा स्थल है आपाधापी है,उथल पुथल है है नाच रहा नर, मर्कट जैसा नचा रहा है,भौतिक सुख पैसा धूप छाँह हो जाने वाले, शीश बिठा, ठुकराने वाले खेल, अनेकों पड़ें खेलने हार जीत क्षण,पड़ें झेलने आते कभी हवा के झोंके मेघों की मार तड़ित के टोंके जग कहता विधि के लेखे है अंतस कहता मिटते देखे हैं जीतते वही, जो कर्मवीर हैं मंजिल पाने को अधीर हैं जिनके मन विश्वास अटल है सद्भावों की "श्री" है, निष्ठा का बल है श्रीप्रकाश शुक्ल
मार्चद्वितीय पक्ष की वाक्यांश पूर्ति दो ऋतुओं की संधि हो रही पीली पीली धूप सजी है अलसाये अल्लड़ फागुन के आंगन,भारी भीड़ लगी है ड़ोली में बैठी शरद ऋतु, अपने घर जाने को आतुर सिरमौर पहन सारंग आये, मधुर मिलन की प्यास जगी है ् हंसता हुआ पलास कहता है आओ सारे भेद मिटा दें एक सूत्र बंधने की चाहत धीरे धीरे आज पकी है बेफिजूल हम रहे भटकते अर्थ हीन सिक्के बटोरते बहुमूल्य समय को यों गुजारना जीवन के साथ ठगी है प्रकृति पुरुष की सहभागिन बन, आत्मीयता सिखाती है हर क्रिया प्रकृति की जन हित है "श्री", रसमय प्रेम पगी है श्रीप्रकाश शुक्ल
विस्मृति की दराज में जब ऐसा कोई कृत्य घटित हो जिस पर पश्चाताप हुआ हो, अन्तस के गहरे में जाकर जिसने प्राण छुआ हो, अर्थ न कोई ऐसी सुधि को मन में रख दिल को तोड़ो उसे भुलाकर सदैव को, विस्मृति की दराज में छोड़ो जब अतीव प्रिय की चाहत, उर को उद्द्वेलित करती हो पर उसे प्राप्त करने की कोई युक्ति नहीं सम्भावित हो उससे जुड़ी सभी सुधियों को मधुर भावनाओं में जोड़ो हितकर है उसे संभालकर, विस्मृति की दराज में छोड़ो लम्बे संघर्षमयी जीवन में कुछ होते हैं ऐसे भी पल जब सभी योग्यताओं के होते भी रह जाते हैं असफल इन्हें बसाकर सतत याद में व्यर्थ न माथा फोड़ो उत्तम है इन्हें समेटकर विस्मृति की दराज में छोड़ो जीवन की राह विलक्षण है सीधी साधी राह नहीं कितनी भी सतर्कता बरतो उलझन आती है कहीं कहीं ऐसे में "श्री" अनुभव विवेक की उजली चादर ओढ़ो भुला अतीत की असफलतायें, नव मंजिल को मुख मोड़ो श्रीप्रकाश शुक्ल 12 comments
अनहोनी कुछ हुयी इधर विकास की आखों में झूम रहे थे स्वप्न सलोने सर पर उड़ली बांध जुटे वो, ईंटें, पत्थर ढ़ोने एक हवा का झोंका आया संभवतः सुदूर पूरब से फैला गया बिषाक्त अणु कण, सम्पूर्ण विश्व के कोने कोने पल भर में सब बदल गया, त्राहि त्राहि बिखरी चहुं ओर प्राणवायु की घटती मात्रा, रखती सारा शरीर झकझोर अनहोनी कुछ हुयी इस तरह कोई देश न बच पाया जिसने वरती तनिक कोताही कोविद ने जा उसे दवाया सर्व व्याप्य महामारी से कैसे भी निजात पानी थी भारत के धनवन्तरियों को अपनी प्रतिभा अजमानी थी भिड़ गये सभी संकल्पित हो, दो दो वैक्सीन बना ड़ालीं सर्वेभवन्तु सुखना से प्रेरित हो, सबकी झोली में ड़ालीं सारा विश्व चकित है अब, भारत की जय जयकार हो रही भारत की सदभावना नीति, जग में मंगल वीज बो रही ं हमें गर्व ऋषि मुनियों पर हमको सुशिष्ठ संस्कार दिये अपने लिए सभी जीते हैं, हिन्दुस्तानी परमार्थ जिये श्रीप्रकाश शुक्ल
प्रथम प्रविष्टि गांऊं कैसा गीत गांऊं कैसा गीत जो उठकर नील गगन में लहराये मानस के अंतस में घुलकर सागर सी गहराई लाये छेड़े तन मन में उमंग, प्रतिवर्धित करे धैर्य सीमा जन्मभूमि के प्रति मानव में मां से बढ़कर प्रीति जगाये आराधना करूं मां शारद से दे दे मुझको ऐसी शब्दावलि जो स्वयं नियोजित,अवगुंठित हो आड़म्बर में आग लगाये जो खड़े पंक्ति के अन्त छोर, ओढ़े नैरास्य की चादर गांऊं ऐसा गीत जो उनको बरवस विकास धारा में लाये आज समय की मांग कि जब "श्री" आसुरी वृत्तियां आपे से बाहर मेरा गीत जहन में उनके सदबुद्धि की सोच उगाये । श्रीप्रकाश शुक्ल
पूनम की चन्दन शीत ठिठुरती विदा लेगयी मौसम में आयी गरमाहट कोयल केकी लगे नाचने मानव मन गुंजन की आहट पूनम की चन्दन सी शीतल चांदनी गगन में रही मचल धरती ने ओढ़ी हरित चूनरी ऋतुराजआगमन की हलचल चर अचर सभी में मस्ती छायी अद्भुत ऋतु अनुपम सुख लायी धरती पर खुशियाँ विखरी हैं लावण्यमयी छवियाँ निखरीं हैं सुधियाँ ममत्व की लगीँ उमड़ने आंखों की कोरें लगीं छलकने काश आज वो भी होता "श्री" जिसे पठाया सरहद पर लड़ने श्रीप्रकाश शुक्ल 8 comments
प्रथम प्रविष्टि गांऊं कैसा गीत गांऊं कैसा गीत जो उठकर नील गगन में लहराये मानस के अंतस में घुलकर सागर सी गहराई लाये छेड़े तन मन में उमंग, प्रतिवर्धित करे धैर्य सीमा जन्मभूमि के प्रति मानव में मां से बढ़कर प्रीति जगाये आराधना करूं मां शारद से दे दे मुझको ऐसी शब्दावलि जो स्वयं नियोजित,अवगुंठित हो आड़म्बर में आग लगाये जो खड़े पंक्ति के अन्त छोर, ओढ़े नैरास्य की चादर गांऊं ऐसा गीत जो उनको बरवस विकास धारा में लाये आज समय की मांग कि जब "श्री" आसुरी वृत्तियां आपे से बाहर मेरा गीत जहन में उनके सदबुद्धि की सोच उगाये । श्रीप्रकाश शुक्ल
द्वितीय प्रविष्टि गाऊं कैसा गीत गांऊ कैसा गीत कि जिससे ठंड़ा खून उबाल ले आये जागे सोयी पड़ी अस्मिता, हतप्रभ प्राणी ऊर्जा पाये आज नगर में कोलाहल है गिद्धों के भारी जमघट हैं भूखी जनता के शोषण को जो बैठे हैं ताक लगाये अनविज्ञता कुये के मेढ़क सी, जो सुनती, सही मानती है युक्ति नहीं है कोई जो, हानि लाभ का अन्तर समझाये छीन झपट खाने के आदी वक्र हांकते ड़ीगें अपनी जिससे उनके राज भोज्य, शश समूह स्वयं भिजवाये बिगड़े हालात देखकर "श्री" मन आज सशंकित है कहीं सुशासन शुभकर साधन आसमान नीचे न लाये श्रीप्रकाश शुक्ल
देवों ने धर्म भुलाया है चढ़ते हुए सूर्य को ही, हम सब ने अर्ग्य चढ़ाया है यशोधरा के वलिदानों को, नहीं किसी ने गाया है लक्ष्मण की पत्नी का, अधिकांश नाम तक नहीं जानते, धन्य्वाद कवि श्रेष्ठ गुप्त का, जो परिचय करवाया है तुलसीदास महाकवि हैं, भक्त प्रवर आराध्य राम के पर वो केवल हुलसी थी, जिंसने सदमार्ग दिखाया है उपदेश अनेकों देते हैं, धर्मानुकूल आचरण वरण का पर स्वार्थसिद्धि के हेतु, अनेकों देवों ने धर्म भुलाया है जग की ऐसी रीति रही 'श्री' सभी प्रशंसक रहे शक्ति के शांत भाव, जन सेवा रत जो, अनगाया मुरझाया है श्रीप्रकाश शुक्ल
पूनम की चन्दन शीत ठिठुरती विदा लेगयी मौसम में आयी गरमाहट कोयल केकी लगे नाचने मानव मन गुंजन की आहट पूनम की चन्दन सी शीतल चांदनी गगन में रही मचल धरती ने ओढ़ी हरित चूनरी ऋतुराजआगमन की हलचल चर अचर सभी में मस्ती छायी अद्भुत ऋतु अनुपम सुख लायी धरती पर खुशियाँ विखरी हैं लावण्यमयी छवियाँ निखरीं हैं सुधियाँ ममत्व की लगीँ उमड़ने आंखों की कोरें लगीं छलकने काश आज वो भी होता "श्री" जिसे पठाया सरहद पर लड़ने श्रीप्रकाश शुक्ल
गीत की फसलें नई प्रथम प्रविष्टि भूमि भारत की प्रथक सारे जगत से, गीत और संगीत का मौसम जहाँ पर नित्य पलता । चाहे विजय की खबर हो या निराशा की लहर, संवेदना का सुर, स्वत ही बह निकलता ।। गीत की फसलें नई उगतीं यहाँ, उद्दिगन मन को धैर्य और शान्ति का आहार देतीं । दुख की बदली हो या हो,धूप सुखमय, आत्म व्यंजन उपकरण बन,गीत जीवन गति बदलता ।। चलते हुये जीवन डगर पर आयेंगे झोंके अनेकों,भीष्म व्रत निष्प्राण करने । ऐसे परीक्षा के पलों में,आशीष "श्री" मां शारदा का, इक सुरक्षा कवच बनता ।। श्रीप्रकाश शुक्ल