Wednesday 13 January 2016

किसकी प्यास बुझाए बादल

इस जगती के कण कण में पलती प्यास  सुलगती सी 
किसकी प्यास बुझाए बादल खुद की प्यास अनबुती सी  

रूठा पड़ा समंदर कब से, उछल न डाली गल बाहें 
आँचल सारा सूख गया है, नित दुखती पीर झुलसती सी 

प्यासे खेत, सरोवर प्यासे, सारी धरती मरुथल है  
मराठवाड़ की पावन नदियाँ  दिखतीं आज बिलखती सी 

भूखे, नंगे बच्चे जिसके, तोड़ रहे हों नित अपना दम 
कैसे जिन्दा रख सकतीं हैं आश्वस्तियाँ उसे अवितत्थी सी 

कुछ अर्थ नहीं स्मारक का "श्री" बुलेट ट्रेन भी रुक सकती है   
दो रोटी उन रूहों को दो , जो अब तक रहीं  तरसतीं सी 
  
श्रीप्रकाश शुक्ल 
मेरी आतुर आँखों में हैं 

मेरी आतुर आँखों में हैं , 
स्वप्न तैरते जो अब तक  
अब घडी आगयी, वे पँहुचें,  
अपने वांछित परिणाम तलक  

शांति और सौहाद्र मुख्यतः, 
हर समाज  का सपना है   
पर इन्हें अधिष्ठित करने को,  
नयी व्यवस्था रचना है   

मानव से मानव  दूर करें, 
ऐसे प्रतीक औचित्य खो चुके   
जाति धर्म के बंधन टूटें, तो
समझो, गहरा कलुष धो चुके   

शिक्षा रोजी  के साधन यदि, 
बिना विषमता सभी पा सकें  
तो द्वेष द्रोह को तिलांजलि दे,   
मधुर प्रेम  सद्भाव आ  सकें 

 हों, शासन की नीतियां सुघढ़ 
प्रकृति पुरुष का सम विकास हो 
देश सुरक्षित बाह्याभ्यन्तर हो 
कमजोर वर्ग की ह्रास त्रास हो  

ये कार्य मांगता हम सब का,  
आधारभूत परिपेक्ष्य अलग हो  
रहे ध्यान परहित का हरदम,
निस्वार्थ कर्म ही सेवाव्रत हो

श्रीप्रकाश शुक्ल 
होने को है
 
नये भोर में नव सपनों की, फसल एक बोने को है  
रखो धैर्य मन में संभाल, अभी बहुत कुछ होने को है 

चद्दर जो ओढ़ रखी है, दुर्गन्ध स्वार्थ की देती है  
इसमें सुवास पहले सी हो, इसलिये अभी धोने को है 

भौतिक सुख के साधन, केवल मिटटी पत्थर सम हैं 
पत्थर ढ़ोने की परंपरा, और नहीं अब ढोने को है 

छोटी छोटी बातों में हम, तिल का ताड़ बनाते हैं जो 
सहने की सीमा पार हो रही, मन फूट फूट रोने को है 

बिना तत्थ के विषयों पर "श्री" आपस में टकराते  हम  
अपना ही चैन गंवाते  हैं , कोई और न कुछ खोने को है

श्रीप्रकाश शुक्ल 



 
दीप दीपावली के सजे 
दीप दीपावली के सजे हैं कहाँ, झालरें दिख रहीं हैं सभी चीन की
भारत की रज से बने दीप सब, भर रहे शिशकियाँ हैं, इक दीन सी  
उस रज को हैं आज भूले हुए, जिसमें मीरा के गीतों की गुंजन भरी 
महक जिसके तन में है श्रीवास सी, वो तड़फती दिखे एक मीन सी  
बत्तियाँ मोम की कुछ हैं बाज़ार में, जो कि दिखतीं हैं अनुरूप रति रूप की   
बाद जलने के बदबू प्रसारित करें, सारी महफ़िल ही कर दें वो गमगीन सी 
आओ संकल्प लें, ऐसा होने न दें, जो भी दीपक जले, हो सृजित देश का 
हो निसृत राग दीपक, सदा कंठ से,  हो ध्वनित रागनी एक मधुर बीन सी 
खुशियाँ मनाना है अन्वर्थ  "श्री", जब पंक्ति के अन्त के दीप जलते रहें  
आत्म सम्मान भर सब आगे बढ़ें, हिय पालित न हो भावना हींन सी  
श्रीप्रकाश  शुक्ल
सारी  धरा ही आज प्यासी

सारी  धरा ही आज प्यासी शांति के दो घूंट मांगे 
दिखती नहीं तदवीर कोई  जालिमों के कृत्य आगे   

पलती नहीं है अब दिलों में दया की अनुभूति कोई 
मर चुकी वो आत्मा जो,  मासूमियत के वक्ष दागे  

सार्वभौमिक मूल्य के संकल्प ले कर हम चले थे 
दुर्भावना ने तोड़ डाले, प्रीति के सुकुमार धागे   

कितने निर्मम कृत्य इनके देख सारा जग डरा है 
फैला रखा आतंक ऐसा जो सक्षम थे भय से भागे 

इस खूंखार राक्षस को मिटाना हैं नहीं बश एक के  
अब घडी वो आ गयी "श्री " त्याग निद्रा विश्व जागे 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं 
 
 दिल में केवल तू रहता है पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं   
 ख़ीरा कर देता है नूर तेरा, फिर कैसे आँख उठाऊं मैं 

 तेरे सिवा न मेरा कोई,  फ़ानी जग एक छलावा है   
 नजरे इनायत मिले तो कैसे, बार बार ललचाऊँ मैं 

 अरमान एक पाला था दिल में रहमे करम तेरा पाऊँ  
 पर रूठी किस्मत जगी नहीं निशि दिन अश्रु बहाऊँ मैं 

 तूने दिया सहारा अब तक, मेरी सारी खामियाँ भुला
 अब बैठ गया आ अन्तस में तो  कैसे तुझे भुलाऊँ मैं  

 वाणी में माधुर्य नहीं पर ह्रदय दिखाने आ पहुंचा "श्री "
 भक्ति पगे भावों को पो कर गीत माल्य पहनाऊँ मैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

निकला कितना दूर

निकला कितना दूर स्वयं से, मानव इस संसार में
नैतिकता रख दूर ताक पर, उलझा धन के प्यार में 

अपना उल्लू सीधा करने, धर लेता है कृत्रिम मुखौटा 
फिर होड़ लगा कर जुट जाता है, दुष्टों की मनुहार में 

गलत तरीके से जब हम, ज्यादह की चाहत करते हैं 
कारण बन जाते वो तौर तरीके नैतिकता की हार में 

क्या कारण अपनों से अपने  दूर दिखाई देते हैं अब 
टूट गए क्यों प्रेम के बंधन, क्यों उलझे हम  रार में  
 
प्रतिपल दबाव में पलने से मानव तनाव में रहता है 'श्री " 
आवश्यक जिसके निराकरण को, सहिष्णुता संचार में 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

किस की प्यास बुझाये बादल

बदरा  घिर आये आधी रात, भयी  ओझल निदिया  
किस किस की प्यास बुझाये बादल, प्यासे नैन जिया  

अम्बर में दमकत है दामिनी,  प्राण गये  परदेश    
कैसे काटूँ  बिरह पल बैरी, ,सुधि में  छाये पिया   

पुरबा डोलत सनन सनन, नैनन भर आई बरखा  
छिन छिन सरकजात आँचल,  तरसत है बिंदिया 

बेकल मन खाये हिचकोले, बुझ आस बन गयी राख   
झोंके बिरह मृगवाहन सम, लरजे हिंडोल सम हिया  
 
पीउ पुकारत पपीहरा "श्री", चातक स्वाति बूँद पायी
भटकत फिरत मधुप मन मोरा नज़र न आये ठिया    

श्रीप्रकाश शुक्ल 
सन्दर्भ : भारत पाकिस्तान युद्ध, समय १०२३ आवर्स 
           दिनाक, १० अक्टूबर १९६५ 
             
एक अविस्मरणीय वृतांत  ( ५० वर्ष पहले )


नदी ताँत का सुरम्य तट था, पंछी करते कलरव गान 
यहीँ  झुरमुठों के आँचल में, लगे हुए फौजी  वितान 

थी  यही  घडी और  तिथि वो, जब नापाक इरादे लेकर  
घुस आया अपनी सीमा में वायुयान दुश्मन का छुपकर 

कहाँ पता था उसको ये रण वांकुरे साठ स्क्वाड्रन के जो 
नभ  में  आँख गढ़ाए  बैठे, ढूंढ रहे  दुश्मन के  छल को  

शुक्ला वरमानी मैथू कोल्या रतनसिंह निर्मल रत्नाकर 
इनसे बच कर कौन निकल सकता था सीमा में घुसकर 

रण भेरी बजी, युद्ध सम्भावी, आवाज़ लगायी शुक्ला ने  
योद्धाओ, सभी युद्ध में आओ, रण  कौशल  दिखलाने  

मैथू, वरमानी , निर्मल ने  हुंकार भरी  मिल  एक  साथ 
तैयार खड़े  हैं  डटकर हम  निकल न पाये  बचकर आज 

तुरत शुकुल ने पकड़ लिया था साठ मील की दूरी थी जब  
और  दबोच कर रक्खा था, निकल  नहीं  सकता  था अब 

चित्र पटों  के परदे  पर यदयपि  दिखता  था आगे आता 
पर जकड़ इस तरह रक्खा था  संभव  नहीं  निकल पाता  

रत्नाकर बोले  ठीक समय है अरे शुकुल  तू कर  प्रहार 
मत देर करो अब घडी आगयी प्रक्षेपणास्त्र भी हैं तैयार 

एक बार फिर से शुक्ला ने आगाह  किया  सब होशियार  
सावधान रहना योद्धाओ, भू  से  नभ  में  करता हूँ वार   

जैसे  ही  बस  दबा अंगूठा, नभ में कोलाहल  गूँज उठा 
पशु पंछी  भयभीत हो उठे, धूल  धूसरित  प्रांगण  था 

प्रक्षेपणास्त्र  चल  दिया  झूम, धाक लगाये  दुश्मन  पर 
जैसे  कुशा तीर रघुवर  का, उस  उद्दंड काग  के  ऊपर  

पलभर में प्रक्षेपणास्त्र ने दुश्मन को जाकर दबा लिया 
भागा आहत, गिरते पड़ते भारत भू में मुंह छुपा लिया 

जय जयकार  हो  रही  थी  दुश्मन थर थर  कांपा  था 
माथा पीट रहा था  कैसे , भारत को  कमतर मापा  था 

मैं  कृतज्ञ  हूँ एयर फ़ोर्स  का  जिसने सक्रिय समय  दिया 
एक एक पल जीवन का, सार्थक  सम्मानित रोज जिया 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Wg Cdr S P Shukla (7090) AE (L)

प्रक्षेपणास्त्र :- जमीन से आकाश में मार करने वाली SAM II रसियन मिसाइल ३६ फीट लम्बी । 
-समूह  परिचय : 
रत्नाकर - विंग कमांडर  रत्नाकर सर्वोत्तम सनाडी 
रतनसिंह - फ्लाइट लेफ्टिनेंट, चीफ फायरिंग टीम 
पायलेट ऑफिसर्स -
कोल्या - सुरेश हरी कोल्हटकर, चीफ रेडियो टीम 
शुक्ल /शुक्ला  - श्रीप्रकाश शुक्ल , कंट्रोल एंड कमांड अफसर 
वरमानी  -नरेंद्र कुमार,  राडार ट्रांसमीटर, एरीअल  अफसर 
मैथू - मैथ्यू जोर्ज, पावर सिस्टम 
निर्मल -नरेंद्र कुमार दुआ, सिस्टम डिस्प्ले ऑफिसर 
एक गरिमा भरो गीत में 
 
पनपते हैं अंतर्वेग फैली कुरीत में 
सम्बन्ध गहराते हैं परस्पर प्रतीत में 
 
बहस कर के जीतने की तदबीर है गलत  
समर्पण ही है सही प्रेमी की प्रीत में 

ठहरने हरगिज़ न दें संदेह की सुई कभी 
सफल प्रेम पलता है विश्वास की जीत में  

अहद है सार्थक जब हर कोई साथ हो
विकसता सद्भाव है सदा सुगढ़ नीति में 

व्यर्थ के प्रलाप का कोई भी न अर्थ "श्री "  
समझकर रचो, एक गरिमा भरो गीत में 

1112   2212    1221   212
एक गरिमा भरो गीत में

अपनी हथेली पै रख प्राण जो, देश रक्षा को रहता  निरंतर सजग 
कुचल पैर से अस्मिता आज उसकी कहते हो हम हैं सबसे अलग 
झूंठे वादों की बैसाखियाँ कांख धर संभव नहीं दूर तक चल सको 
चढ़े बार इक, हांडी जो काठ की,बाद उसके स्वयं कोडियों पर बिको 
 
देशरक्षक के प्रति है असद्भावना चैन पाओगे तुम कैसे इस जीत में   
देश की छवि न मैली करो आज तुम, है उचित एक गरिमा भरो गीत में

जन हित की प्रत्येक परियोजना, फंस घोटाले में डूबी सभी को विदित 
जो थे सत्ता के शासक बने चट्टे बट्टे, थैली में होकर स्वयं सम्मिलित
विश्वास जनता का लुटता रहा रोज ही, सूत्र सौहाद्र का टूट भू पर गिरा
मुंह की खायी, हुए बेदखल राज से, रह गया सारा अनुभव धरा का धरा 

विटप लोकतांत्रिक न सह पायेगा तीव्र झोंका भरा जो कुटिल नीति में                      
देश की छवि न मैली करो आज तुम, है उचित एक गरिमा भरो गीत में

 श्रीप्रकाश शुक्ल 
शहर की उस वीरान गली

शहर की उस वीरान गली में,
सूरज के पग थक जाते हैं जब 
संतप्त ह्रदय की प्यास बुझाने  
पंछी आ वहाँ बैठ जाते हैं  तब  

बैसे तो शहर विशद तरुवर है   
हर शाख बसेरा प्रणयी विहगों का 
पर प्रेम गीत प्रतिबन्धित  है 
हर निमिष त्रास शंकालु दृगों का 

झोंका समीर का ले आता है  
खुशबू गाँवों की रोज शाम 
वो वीरान गली बन जाती है
बिछड़ा सा उनका सुखद धाम  

क्षण भर को पा जाते हैं वो 
पुरसकून, नीरव  इकांत
प्यार परिंदों, के जीवन की 
वीरान गली हरती है क्लांति 

श्रीप्रकाश शुक्ल 


अनपढ़ी किताब 

जो स्वप्नं सजाये जीवन में बिखर गये सब तिनके तिनके   
जो  दम  भरते थे अपनों का छुड़ा  ले गये सभी सिलसिले   
जब पृष्ठ पलटता हूँ अतीत के लगता जैसे अनपढ़ी किताब 
आहत  दिखते हैं  हर पन्ने  पर   टूटे  फूटे अध जले ख़्वाब 

कुछ  एहसास  अधूरे से रुक रुक कर सुधि में  आ जाते हैं
हो  कितनी भी मन  की स्थिरता आँसू  दो टपका जाते हैं  
सोचा कितनी  बार महज़ मन की ये इक ऐसी  दुर्बलता है 
जिसमें कोइ सार नहीं है, भ्रामक है, के वल दुःख पलता है 

जीवन की सच्ची रीति यही  है, पन्ने  केवल  आगे पलटो 
 नयी  कल्पनायें  सवाँर कर नया कथानक फिर से चुन लो 
जिनके  होते  संकल्प  सुदृढ़  नापते  परिधि  असमानों की 
उड़ते  हैं  निर्भीक  गगन में , भर चाहत,  नये  ठिकानों  की 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अनपढ़ी किताब

कितनी नींदें बेकार गयीं  
कैसे  रख  पाऊँ  हिसाब 

अधरों पर स्मित का घेरा  
दे गया मुझे परिचय तेरा 
मैं सुधि बुधि खोये खड़ा रहा 
दे न सका कोई जबाब 

हमने तो कुछ भी न कहा 
मन ही मन चुपचाप सहा
कोई कभी न रिश्ता बोया 
कैसे फिर उग आये ख्वाब 
 
मेरा तो अनरँगा वसन था 
कोरे कागज़ जैसा मन था 
खिंच गये स्वयँ खाँचे विचित्र 
उलझा जिनमें मैं बे हिसाब 

तेरे अंतर मन की भाषा 
छुपी सुलगती सी अभिलाषा 
पा सम्प्रेषण पहुंची हम तक 
बन कर के अनपढ़ी किताब 

पढ़ने से पहले बापस ले ली  
जीवन की कैसी अठखेली 
अब सब जब बिखर गया तो  
क्यूँ  बेकल करता आबताब 

कितनी नींदें बेकार गयीं  
कैसे रख  पाऊँ  हिसाब 

श्रीप्रकाश शुक्ल 




हर चेहरा खो जाता है

राजनीति का खेल अजब है, रोज बदलने पड़ते चेहरे
बार बार प्रतिरूपण में, असली हर चेहरा खो जाता है 
सच्चे जीवन के मूल्य बिरासत में जो हमने पाये थे
धीरे धीरे रिसने पर मन का मैला रंग गहरा हो जाता है 

जब अभिन्न साथी कोई अपना, आँख चुराने लगता है 
इक पैनी कसक ह्रदय में उठती  बीज दर्द के बो जाता है
संवेदनशील व्यथित मानव मन ढूढ़ नहीं पाता कोई हल 
उर में उद्वेलित भाव पुंज, अधरों पर आकर  सो जाता है 

जो स्वदेश की रक्षा में, हंसकर प्राण न्यौछावर करते   
उनके स्वजनों का दर्द, सभी का ह्रदय भिगो ही जाता है 
पर जब उसी शहादत पर, होती  है कुत्सित राजनीति   
तो फिर रोना आता है और शीश शर्म से झुक जाता है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
आँखों की भाषा

नगर वासुरा ने जब पूछा, वो श्यामल से कौन तुम्हारे  
घूँघट तिरछा कर सीता ने बता दिया सब नयन इशारे 
राधा की चितवन कान्हाँ को प्रतिपल करती रही विभोर 
वो बरबस चित्त चुरानेवाला, जग में कहलाया चितचोर 


आँखों की भाषा अद्भुत है जो कि मन का भेद खोलती 
इसे समझने में प्रवीण जो  बुद्धि उसकी  सही तौलती  
जैसे मधुरिम, शालीन, सुभी, शब्दावलि रुचिकर होती है 
बैसे ही आँखों की मटकन हृद में अनुभूति सुखद बोती है 

शकुंतला थी सुधि में खोई, आ पंहुचे जब ऋषि दुर्वाषा 
हुयी प्रकम्पित भय से अंतस ,पढ़कर आँखों की भाषा 
अश्रुपूर्ण आँखें बोली थीं,, क्षमा करें मुनि, हों अनुकूल
मुनि बोले जिसकी सुधि बैठी,  वही तुझे जायेगा भूल  
 
जब भी हृद सागर में उमड़ी संप्रेषण की अमिट पिपासा 
सब से मुखरित रही सदा ही आँखों से  आँखों की भाषा 
शब्दों में सामर्थ कहाँ मन की अभिलाष प्रकट कर पाते 
आँखों ने वो  कहा सहज ही  शब्द कभी न जो कह पाते 

श्रीप्रकाश शुक्ल