Monday 5 February 2018

टूटी वीणा के तार

क्या टूटी वीणा के तार 
बार एक फिर से झंकृत होंगे

बज रहे बेसुरे ढोल आज 
गूंजे चहुं दिश कर्कस आवाज
संवेदना हुयी है तार तार
देहशत गर्दी की हद है पार 
क्या नैतिक मूल्यों के अंकुर
बार एक फिर से निसृत होंगे

क्या टूटी वीणी के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे

सिर पर चढ बोले अहंकार
सार्थक सम्मति का तिरस्कार
बिन कारण करते जो अनिष्ठ
दे रहे स्वयं  को घोर कष्ट
क्या तामसी प्रकृति के भाव
बार एक फिर से विस्मृत होंगे

क्या टूटी वीणा के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे

ये धरा प्रकृति की अनुपम रचना
जहाँ सहज सफल हो, हर सपना
मिलजुल कर हो जीवन यापन
 पनपे कण कण में अपनापन
क्या प्रकृति नटी की सुखद गोद 
में, आश्रय ले सब हर्षित होंगे 

क्या टूटी वीणा के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे

श्रीप्रकाश शुक्ल


सूर्य फिर करने लगा है
जगत में चहुं ओर फैलीं हैं समस्यायें बड़ी
मौसमों की चाल से जो होगयीं आकर खड़ी
थी निकलनी धूप जब,बरसात की लगती झड़ी
सूर्य फिर करने लगा है जानकर धोखाधड़ी

करवट बदल बेसमय, जलचक्र को बाधित करे
सागर रहे जब शान्त मन नभ में पयद कैसे भरे
प्यासी रहे सारी धरा हों, त्रसित सब चल अचल
हठधर्मिता ऐसी अजानी हों सभी साधन विफल

फिर भी है ये जगतात्मा प्रकृति का पोषण करे
कीटाणुओं का नाशकर तत्व पोषक तन भरे
किरण जिसकी मनुज की ढेरों व्यथायें नष्ट कर दे
पर न जब मिल पाए तो शक्ति प्रतिरोधक ही हर ले

दे रहा ऊर्जा सतत संभव हुआ जीवन है जिससे
लाभकारी सुलभ जो सारा जगत चलता है जिससे
आधार है सांसों का वो हम पूजते इसलिए उसको
है सौर्यमंडल का वो तारा मानते सब दिव्य जिसको

श्रीप्रकाश शुक्ल

 कोटि कोटि कंठ में हुआ मुखर

        कोटि कोटि कंठ में हुआ मुखर एक स्वर
देश में सौहाद्र को आये न आंच तिल भर

हर व्यक्ति देश में बने निर्भीक सदाचारी
सेनायें विजय पायें अरिदल समस्त धवस्त कर

होवें किसान कर्मठ फसलें नयी उगायें
हों नीतियाँ सुनीतियाँ संवेदना निहित कर

नारी स्वदेश की हों शिक्षित सजग सुशीला
वर्चस्व दें जो राष्ट को आधार स्वयं बनकर

उठो तरुण कदम भरो, काम बहुत शेष है
अवसर क्यों गंवाओ "श्री" व्यर्थं समय नष्ट कर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
पीपल की छांह नहीं,

पीपल की छांह नहीं, बैठन को  ठांह नही, अमवा की डालों  की लुप्त है कतार  
चिडियों की चहक नहीं, फूलों की महक नहीं,सूखे पडे तालों की लुप्त है बहार  
प्रिय की याद आयी, मदन पल कुरेद लायी, नयनों से बरबस झरत है अश्रु धार  
पिय बिन दिन कटे नहीं, प्यास मन की मिटे नहीं, जीवन डगर लगे है निसार 
  
मधुवन के कुञ्ज में, सूने सघन निकुंज में,बैरी बिरहा अगनि लगावत है समीर 
डगर ओर नैन  किये,  बाट तकूं मैं  प्रिये, चंदा की  शीतलता बढ़ावत है पीर 
सांझें जो बीती साथ,मन में मचांए उत्पात, तन मन सगरो आज भयो है अधीर 
कितनी लगाई देर,थक गई मैं टेर टेर, जमुना को सूनो परो तडफावत है तीर 

संग जो बिताये पल, छिन छिन करत आकुल, कोऊ नहीं पास मन जो बंधाये धीर 
मेंहदी रचे हाथ वो, महावर भरे पांव दो, पावों की पैजनियाँ  सुधि भर आये मंजीर 
मोहक मुस्कान तेरी, सुधि बुधि हिरात मेरी, रस भरे बोल हिय में खैंचत हैं लकीर  
बिछुड गयी सारी आस, मन्द हुयी हर श्वास, मिलन की करौ पिय कछू तो तदवीर 


श्रीप्रकाश शुक्ल 
जानता यह भी नहीं मन 

जानता यह भी नहीं मन कौन मेरा पथ प्रदर्शक
कौन करता बाध्य है तूं हो चपल पल पल भटक

बुद्धि ने जो कुछ सुझाया मानना तेरा फर्ज है
किसके इसारे पर तू फिर, हर सोच को देता झटक 

मात्र छाया है तू मन, अंतर्निहित उस दिव्य का 
आदेश दे कुविचार के क्यों झूंट में जाता अटक

है अगर तू सारथी तो क्यों न  बलगायें संभाले
क्यों न साधे सत्य पथ, क्यों ढील से जातीं लटक

मन तो चंचल ही रहेगा और शासक इन्द्रियों का 
जब तक न "श्री" अभ्यास से,  दुर्बुद्धि को देते पटक


श्रीप्रकाश शुक्ल
हम तुम गए मिल 

जीवन की लम्बी डगर मध्य कुल क्षण ऐसे भी आते हैँ 
भर देते जो अपार खुशियाँ इक नया दौर रच जाते हैँ 

कभी कभी एकाकीपन मन इतना विह्वल कर जाता है 
जीवन लगता अतीव दूभर दिन मुशकिल से कट पाते हैँ

जीवन की आपाधापी मेँ यह सच है समय नहीं मिलता
पर बीते हुए दिनों के किस्से सुधियों में आ  छा जाते हैं 

ऐसा ही एक मधुर क्षण था जब थे, हम तुम गये मिल 
वो फेरे सात अग्नि के चंहुदिश, मन प्रमुदित कर जाते हैं. 

मिलन हमारा नीर क्षीर सा कितने अधीर थे हम मिलने को
प्रयास तुम्हारे, वर्ण मेरा लेने के "श्री "मन से निकल नहीं पाते हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल
जरा झलक मिल जा्ये 

जरा झलक मिल जाये यदि  मुस्कान की
जिसमें कुसुमित दिखे हमें आशा हर इंसान की
तब  समझेंगे मेरे घर में सूरज निकल रहा है
अभी तलक तो हर आश्वासन विफल रहा है 

बिना काम के युवा आजकल भटक रहा है
मंहगाई में बिंधा चक्र जीवन का अटक रहा है 
हर गरीब याचक है धनवान और धनवान हो रहा
भ्रमित हो रही है  जनता हर कोई विश्वास खो रहा

आश्वासन है बुलिट ट्रेन द्रुतिगति से जल्दी दौड़ेगी
बल्लव भाई की प्रतिमा फिर से अतीत से जोड़ेगी
राम लला का भव्य मदिर सतयुग का गौरव लायेगा
पर क्या इस विकास से भूखा पेट उभर पायेगा

लगता है हम भूल रहे हैं क्या आवश्यक क्या अच्छा है
छवि सुधारने के लालच में जनता का हित कच्चा है
हर धीरज की सीमा है, जब भी ये पार हो जायेगी
चुपचाप न बैठेगी जनता परिवर्तन को चिल्लायेगी 

श्रीप्रकाश शुक्ल
दीप हूँ जलता रहूँगा

ज्ञान का मैं दीप हूं, जलता रहूंगा अनवरत 
जब तक न मन का मैल, उधडे परत दर परत

कुटिलता सुरसा बनी, पथ में खड़ी है मुंह पसारे,
कल्याण के हर कार्य में अवरोध बनती जो सतत

स्नेह की बाती सदा,  रह साथ  खुद  जलती रही
मिलकर थपेड़े आंधियों के, हमने सहे हैं अनगिनत

हर धर्म के अनुयायियों से, मेरी केवल ये गुजारिश,
निज धर्म की रक्षा करो,पर दूसरों से हो न नफरत 

आज सारे जग में फैला जोर "श्री " दुसवारियों का,
मित्रवत जीवन जियें हम, हो यही सब की जरूरत

श्रीप्रकाश शुक्ल
जरा झलक मिल जाये 

जरा झलक मिल जाये जब भी उस पल की 
जब जीवन में शेष रहे न, कुछ आकांक्षा 
वही एक पल होगा जीवन फिर से प्रारंभ करो
खोजो खुद को, पाओ, शाश्र्वत अनन्त दीक्षा

ये नश्वर जीवन जिसको पाकर हम इतराते हैं
फंसे मोह माया में निशिदिन  ढेरों कष्ट उठाते हैं
इसका औचित्य तभी है जब हम संकल्पित होकर
पायें वो निमित्त, जिसको आये हम इस धरती पर 

जीवन चक्र मुख्यत चलता लेन देन पूरा करने को
और अन्त में एक रूप हो आवागमन बंद करने को
यदि ये उद्देश्य हुआ पूरा तो समझो जीवन सफल रहा
अन्यथा व्यर्थ ही गया समय निष्फल था जो कुछ भी सहा 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
बात रहती है अधूरी 

वतन छोड़ने की कसक, बढ़ा देती है दूरी 
गुफ़्तगू रोज हो चाहे, बात रहती है अधूरी 

मौसम बदलते, त्यौहार आते, जश्न मनते है 
ये मौंके हैं, जब होता है, गले मिलना ज़रूरी 

जी चाहता वो आएं, पास बैठें, और बतयाएँ 
ईद के वो चाँद क्यों, अरे क्या ऐसी मज़बूरी 

जब थकते जीवन के प्रयास ,हार मान घबराते हम
वांछित तब संकल्प साध, हम रक्खें पर्याप्त शबूरी

संतोषी सुख पाता है, ये समझा हुआ मंत्र है "श्री"
स्वार्थ त्यागने से ही होंगीं, युवकों की इच्छाएं पूरी 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
बड़ी दूर का संदेशा

 सच्चा सरल भक्त, जो है शरण ईश की,
 प्रति पल पाता  है, बड़ी दूर का संदेशा
 आपद के अंधेरे उसे, जब आ घेरते हैं 
 पाता प्रकाश पुंज, प्रभु कृपा का हमेशा

 है परम कृपालु प्रभु, भूखा मात्र प्रेम का
 प्रेम से पुकारो, वो दौड़ा चला आता है 
हर पल वो देता साथ, अपने प्रिय भक्त का
धन्ना सा भक्त, प्रभु से काम भी करवाता है

सारे विश्व के, प्राणियों के मंगल हेतु, वो 
जगती पर सन्देश वाहक भिजवाता है
ईसा, मोहम्मद,  बुद्ध, महावीर जैन
राम,कृष्ण,नानक बन स्वयं चला आता है 

तर्क और वितर्क का, कोई भी औचित्य नहीं 
कोई विज्ञान क्षेत्र, उसे समझ नहीं पाया है 
अनुभव के आधार पर, ज्ञानी मानते हैं यही
सम्पूर्ण विश्व, उसने प्रकृति से रचवाया है।

श्रीप्रकाश  शुक्ल


बड़ी दूर का संदेशा

बड़ी दूर का संदेशा ये, डाल रहा मुझको मुश्किल में
नहीं चाहिए मन्दिर मस्जिद, मैं तो रहता हर दिल में 

क्यों आपस में लड़ते हो बिन कारण सब मेरी खातिर
मन्दिर में कोहराम बहुत है, सूना लगता है मस्जिद में 

मैं भाव विभोर हो जाता हूं जब सद्भावना दिवस मनता
हैं कितने अच्छे लगते सब, गलबाहें डाले चहल पहल में 

क्यों बांध रहे हो प्रासादों में, जहां मेरा दम घुटता है 
मुझको भजन सुहाना लगता जब गूंजे वो महफ़िल में 

सच्चा सरल भक्त जो मेरा सदा साथ मेरे रहता "श्री"
बौद्धिक,मुल्ला और पादरी ज़बरन रखें मुझे सांकल में 


श्रीप्रकाश शुक्ल 



हार है या जीत मेरी 

हार है या जीत मेरी, है कठिन करना सुनिश्चित
टेर अन्तस की सुनो हो निरत निज कर्म सत चित
बाधाएं सुरसा सी अनेकों आयेगीं मुंह को पसारे
पाओगे डसने को आतुर आलोचकों के बृन्द सारे

मत भूलना तुम एक कवि हो और कवि सच्चा रहा है
जग में कलुश जो भी दिखा सब  निडरता से कहा है
इतिहास साक्षी है नहीं कोई भी कवि अब तक बिका है
सच के समर्थन में अटल अपने मनोबल पर टिका है 

हार है या जीत मेरी इस प्रश्न का औचित्य क्या है 
जब कि मन स्तर पर उगी ये भावना की प्रक्रिया है
लक्ष्य ले कोई चलो सम्भावना दोनों की सम है 
हार में जो मुस्कुराते वो जीत से किस तरह कम है



श्रीप्रकाश शुक्ल
एक दीपक जलाकर

संभव नहीं, एक दीपक जलाकर सारे जगत की तमस मिट सके 
संभव नहीं एक दीपक बहाकर, बहती नदी की फिजा दिख सके 
फिर जो  दीपक जलाते अमा के प्रहर वो प्रबल सूर्य की अर्चना है 
चन्द्रमा रश्मि का एक कण मिल सके, ऐसे सबब के लिए वंदना है 

आज चंहुओर फैली अमावस ही है, सारे जग में घनी आफतें पल रहीं  
खुद ही जन्मी है ऐसी दुखद हालतें, जो हर एक को नित्य प्रति छल रहीं  
फ़जूली अफवाहों के झूंठे झोंके पकड़, अलगाव की आँधिया चल रहीं 
धर्म संकट में हैं प्राण सबके यहाँ,युक्तियाँ कोई हल की नहीं मिल रहीं 

पर ओढ़कर नैराश्य यदि बैठे रहे चुपचाप, तो एक भारी भूल होगी 
चित्त की संकीर्णता होगी सघन, सद्भाव कीआशा सदा को दूर होगी 
आमजन रूठे हुए जो स्वप्न उनके समझकर, इक बार फिर होंगे सजाने 
ले साथ में, सम्वेदना की नींव पर  विश्वास के अंकुर नये होंगे उगाने 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
एक दीपक जलाकर

संभव नहीं, एक दीपक जलाकर सारे जगत की तमस मिट सके 
संभव नहीं एक दीपक बहाकर, बहती नदी की फिजा दिख सके 
फिर जो  दीपक जलाते अमा के प्रहर वो प्रबल सूर्य की अर्चना है 
चन्द्रमा रश्मि का एक कण मिल सके, ऐसे सबब के लिए वंदना है 

आज चंहुओर फैली अमावस ही है, सारे जग में घनी आफतें पल रहीं  
खुद ही जन्मी है ऐसी दुखद हालतें, जो हर एक को नित्य प्रति छल रहीं  
फ़जूली अफवाहों के झूंठे झोंके पकड़, अलगाव की आँधिया चल रहीं 
धर्म संकट में हैं प्राण सबके यहाँ,युक्तियाँ कोई हल की नहीं मिल रहीं 

पर ओढ़कर नैराश्य यदि बैठे रहे चुपचाप, तो एक भारी भूल होगी 
चित्त की संकीर्णता होगी सघन, सद्भाव कीआशा सदा को दूर होगी 
आमजन रूठे हुए जो स्वप्न उनके समझकर, इक बार फिर होंगे सजाने 
ले साथ में, सम्वेदना की नींव पर  विश्वास के अंकुर नये होंगे उगाने 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
आखिर शब्द कहाँ हैं वे 

हम उस देश के वासी हैं    
जहाँ शब्द गरिमा पाते हैं 
शब्दों की अस्मिता हेतु हम
सर्वस्व न्यौछावर कर जाते हैं 

शस्त्र जिसे कर सके नहीं 
शब्दों ने कर दिखलाया है 
शब्दों के महज संयोजन ने 
नव इतिहास रचाया है 

आखिर शब्द कहाँ हैं वे 
जो नृप को बन भिजवाते थे 
शब्द हेतु योद्धा रण में
हरि को शस्त्र  गहाते थे 

शब्द,आखिर कहाँ हैं वे 
जो इतना जूनून भर जाते थे 
पत्नी, पुत्र सहित भूपति खुद,  
शब्दों की खातिर बिक जाते थे 

आखिर शब्द कहाँ वे 
जो असंभाव्य करवाते थे 
सामान्य पुरुष को प्रेरित
 कर महाग्रन्थ रचवाते थे 

भुला रहे अब अपनी संस्कृति  
कुछ भी अनर्गल कह जाते है 
और, दूसरे क्षण ही उसको 
लज्जा छोड़, निगल जाते हैं 

ये मूल्य नहीं हैं वो जिन पर 
हम होते रहे सदा गर्वान्वित 
ये अवनति के प्रथम चिन्ह हैं  
परिलक्षित जिनमे अनहित
 
क्यों न विवेक से मंथन कर 
हम पहले सोचें  फिर तोलें
अहम् भाव से  प्रेरित  हो 
क्यों निन्दनीय अप्रिय बोलें 

श्रीप्रकाश शुक्ल  

दृष्टियॉं में बिम्ब भर

दृष्टियॉं  में  बिम्ब भर, आने  वाले  उज्ज्वल कल का  
रोप रहे हम ऐसे पौधे जन हिताय बीता कल जिनका 

कैसी बिडंबना, कुछ जिनको हम सत्यमूर्ति समझे थे 
आज  मुखौटा खुला दिखा तब कुत्सित चेहरा उनका 

हैं जमीन से जुड़े हुए जो, पर  मुरझाये  उनके चेहरे 
उनकी उलझन का हल ही है मुख्य लक्ष्य जन जन का 

पर अब तक  जो स्वार्थ सिद्धि में जुटे रहे हैं जीवन भर 
बने हुए वो पथ के रोड़े, हो रहा न कुछ उनके मन का 

सही समय आ पँहुचा है "श्री " पकड़  न ढीली करनी है   
मूल सहित उनको उखाड़ना देश विरोधी कृत्य है जिनका 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
दृष्टियों में बिम्ब भर 

दृष्टियों में बिम्ब भर
देश हो समृद्ध, सुन्दर

राह का रोड़ा न बन
देश हित कुछ भला कर

देश अपनी शान है
अपनों जैसी हो फिकर

प्यार गर जो मिट गया 
देश जायेगा बिखर

समय "श्री" उपयुक्त है
कर्तव्य कर हो निड़र 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

सन्दर्भ : मनीपुर में १८ सेना के जवान मारे जाने के सन्दर्भ में यह रचना सभी सैनिकों को सम्बोधित है


अरे उठो वीरो क्यों चुप हो 

नहीं कुछ फर्क है दिखता हमें  भीरुता और शराफत में
मतलब क्या चुप हो बैठें हम नादानी और  हिमाकत में 
क्षमा उसी को शोभा देती जो सच में ज़हर उगल सकता है 
बदला निपात का हो  विघात, तो माहौल  बदल सकता है  

अरे उठो वीरो क्यों चुप हो किसकी तुम्हें प्रतीक्षा अब है 
अठारह सह्स्र जब  चीख उठें, शूरों की  सार्थकता तब है 
घर घर में घुस ढूढ़ निकालो जिसने ऐसा अंजाम  दिया  
सारे जग को आज बता दो, किसने माँ  का  दूध पिया  

नहीं तनिक भी आवश्यक हम जग के आगे रोना रोयें 
प्रत्युत्तर ऐसा सटीक हो सदियों  तक हम  चैन से सोयें  
यदि देश पडोसी कोई भी दे रहा समर्थन इस जघन्य को 
तो ऐसा पाठ पढ़ाओ उसको फिर न छेड़े किसी अन्य को 

याद करो चाडक्य नीति जो कुश की धृष्टता मिटाने को 
देती सलाह संकल्पित हो मौलिक आलंबन निबटाने को 
आज ज़रूरी है हम इनकी अति विस्तारित जड़ें मिटायें 
ऐसे दुः साहस पूर्ण कृत्य जिस से अपना सर न उठायें  
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
बोस्टन 
५ जून २०१५ 

अपने अम्बर का छोर 

भक्ति भाव से अनुरत हो करना चाहूँ मैं  गान 
अपने अम्बर का छोर हमें दे माँ शारदे  महान 

जब भी भाव उमड़ अंतस से अधर कोर तक आया
शब्द नहीं संगत दे पाये बिखरी लय अरु तान 

सुना, भाव की तू भूखी है, आडम्बर नहीं पसंद तुझे 
निर्मल मन से आ पहुंंचा हूँ, यद्यपि मैले परिधान 

बुद्धि दायिनी गीत बोधिनी संगीता तू जग माता 
तू ही एक अकेली है, जो  निरसित करती अभिमान 

मैं हूँ एक अकिंचन माँ "श्री" शरण हमें दे नेह हमें दे 
मन से मेरे मिटा अँधेरे,  ज्योतित  कर संज्ञान 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपने अम्बर का छोर 

नारी, पुरुषों के जीवन में इक छायादार बृक्ष बन आयी  
जिसके  नीचे बैठ पुरुष ने अपनी सारी व्यथा भुलायी 

नारी ने सदा समर्पण को अपने जीवन का ध्येय चुना 
अपने अम्बर का छोर दिया चाही ना कभी भी प्रभुतायी  

पुरुष सोच कितनी निकृष्ट नारी अर्पण कमजोरी समझा 
विकृत प्रवित्ति के बसीभूत, दुष्कर्मों की मर्यादा ढायी   

घटते समाज के मूल्यों का विश्लेषण अति आवश्यक है 
अतिशय लगाव सुख साधन से लगता है उत्तरदायी ? 

हालात इस तरह बिगड़े "श्री" आकुंठन से सिर झुकता है 
लोक तंत्र सुदृढ़  है, फिर भी, कैसे ऐसी स्थिति आयी   

श्रीप्रकाश शुक्ल 
तेरे आने का  है असर  शायद 


खुदगरज़  ख्यालात ने, तोड़ी है कमर शायद  
मुश्किल है सलीके से हो,  जिन्दगी बसर शायद  

मेरी ही कोई ख़ता, सीने  से लगाई  होगी 
करता नहीं वो  याद अब,  जो उस कदर शायद  

सुलगती धरती से उठी है, सोंधी सी महक  
लगता है तेरे आने का  है असर  शायद 

जिन्दगी की डोरी अभी और खींच सकते थे  
यक़ीन तेरे आंने का होता अगर शायद  

फरेबों में साथ देना  मंज़ूर  था  ना  "श्री" को 
हर बात पै  वो  इस से  खफा आये  नज़र शायद  


 श्रीप्रकाश शुक्ल 
Web:http://bikhreswar.blogspot.com/
कौन संकेत देता रहा 

कौन संकेत देता रहा है अहर्निश 
कौन अंतस में बैठा है प्रहरी बना 
जिसने रोका सदा, भूल से भी न हो   
कार्य ऐसा कि हो जिससे अवमानना 

जो हितैषी  परम सारे संसार का 
प्राणियों हेतु जो व्यस्त है अनवरत 
त्रिलोकों को जो है संभाले हुए,  
जिसके आदेश से है प्रकृति कार्यरत 

भ्रम में डूबे हुए हम न पाए समझ 
उसकी दयावन्त पहचान को 
भोगते भी हुए सौख्य साधन सभी 
भूलते ही रहे उसके ऐहसान को 

अगर चाहते उसकी रहमत सतत   
जिंदगी अंधकारों में अविचल बहे 
तो अहम् भूल मुठ्ठी बंधी खोलकर   
मैं हूँ  याचक यहाँ  भावना ये  रहे  

श्रीप्रकाश शुक्ल