Friday 30 September 2011

सहायक सन्दर्भ : किरणसती, अकबर के दरबार के एक कवि प्रथ्वीराज राठौर की पत्नी थी जिन्होनें खुशरोज़ बंद करवाया |वो शाक्तावत कुल की थी

फिर अतीत की खुली डायरी, और तुम्हारी बात  हुई  

फिर अतीत की खुली डायरी, और तुम्हारी बात  हुई  
      पदचिन्ह तुम्हारे पड़े दिखाई, एक मधुर सौगात हुई
               आओ एक बार सब मिल कर, श्रद्धा सुमन चढ़ा लें
                     पग रज धार शीश पर अपने, स्वर्णिम गाथा गा लें

कौन भूल सकता है उस, पूज्या पन्ना धाई को
       खुद का बालक सौंप दिया, निष्ठुर क्रूर कसाई को
              ममता कुचल, देश प्रति बलि का, सब करते अभिनन्दन
                    छत्रपती की जीवनदा माँ, तुमको शत शत वंदन

साँसें बोझिल ह्रदय अनुतपत, आँखों से बरसात  हुई 
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई  

अगला पन्ना खुला हवा से, किरणसती अंकित जिसपर
      साक्षात चण्डिका बन बैठी, अकबर की छाती चढ़कर
            हाथ जोड़ गिड़गिडा़ रहा था, मांग रहा था जीवन दान
              खुशरोज़ पर्व की अन्त्येष्टि की, धन्य धन्य शाक्तावत शान


रोम रोम पुलकित था तन, जब चर्चा ये विख्यात  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई  


भामाशाह  की गौरव गाथा, झांक रही अगले पन्ने पर
      जीवन भर की सारी पूँजी, भरी एक थैली के  अंदर     
           अरावली का शीर्ष शिखर, जब भटक रहा था जंगल में
                लाकर उड़ेल दी थी थैली, मेबाड़ मुकुट मणि चरणों में

गाथा ऐसे बलिदानी की इस युग न सुनी ना ज्ञात  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात  हुई 

वही परिंदे उड़ पाए, जो डरे नहीं तूफानों से
      अम्बर की सीमा नापी, संकल्प भरे अरमानों से
            अब अपना दायित्व यही , ये पन्ने उचट विखर ना जाएँ
                 इनमें तसदीकित कृतित्व , जन जीवन में कैसे लायें

जब भी निर्णायक समय पड़ा, ये सुधिकृति हरदम साथ  हुई  
फिर अतीत की खुली डायरी और तुम्हारी बात हुई




श्रीप्रकाश शुक्ल



Wednesday 14 September 2011

मन तुम्हारी रीति क्या है


प्रवल निर्झर से समाहित , मन तुम्हारी रीति क्या है
अविछिन्न, अविरल, धार में, इंसान का सब कुछ बहा है
स्वच्छंद, चंचल, सतत प्यासे, भरते रहे वांछित उड़ाने
चिन्तक, मनीषी, विद्धजन, हो विवस, तुमसे हार माने


अनुभूतियों के जनक तुम, अनगिन तुम्हारी हैं दशाएं
फूल सी कोमल कभी तो, बन कभी पाषाण जाएँ
एक क्षण संगीत लहरी , मोद की सरिता बहाती
तो अगामी क्षण विषम हो, शून्यता सी समा जाती

है कठिन तुम पर नियंत्रण, मानते सब ही गुणी जन
पर खींच वल्गाएँ, सतत अभ्यास कर, थाम लेते अश्व मन
शांत मन यदि कर सकें तो, ज्ञान का हो अवतरण
ज्ञान के अंकुर उगें तो, सुगम, शुचि, जीवन भ्रमण



श्रीप्रकाश शुक्ल

Thursday 1 September 2011

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा ?
शिक्षा का अधिकार मिलेगा, जैसे हुआ विधेयक पारित
खुल जायेंगे द्वार सभी जो, अब तक रहे अगम, प्रत्याशित
सहज कर सकोगे अर्जित तुम, मनचाही प्रतिभा, कौशलता
और साथ में खड़े पंक्ति में, तौल सकोगे अपनी क्षमता

पर भूल गए क्यों वो सामंती सोच अभी तक जीवित है
ऊंची उड़ान की बात करें क्या, महज कल्पना भी वर्जित है

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
भुला सकेंगे लोग कि तुम जन्मे थे जहाँ, जगह थी निर्जन
धन विहीन , निन्दित ,निरीह , सेवारत था सारा वचपन
जन्म जाति को अनदेखा कर स्वीकारेंगे पौरुष बल पर
पहचान, जगह पा जाओगे, अधिकारी जिसके निशिवासर


पर भूल गए क्यों, वर्ण व्यबस्था, अब भी भर हुंकार रही
डस लेने को दीन दलित सब, सांपिन बन फुफकार रही

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
चुने हुए जनता के प्रतिनिधि, अपना दायित्व निभायेंगे
शासन  प्रदत्त सुविधाएँ, समभाव सभी तक पंहुचायेगे
मन वचन कर्म से पालन होगा, संविधान संरचना का
भृष्टाचारी,दुष्ट, दुराचारी, कर न सकेंगे चाहा अपना

\पर भूल गया तू कर्ण, अभी भी वही शक्तियाँ सक्रिय हैं
छलबल से छीन सभी के हक, अपने ही हित जिनको प्रिय हैं

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा
भौतिक अभ्युदय के साथ साथ, मानसिक मूल्य भी बदलेंगे
प्रगति समावेशी हो चहुँदिश , सब मिल नैया खे लेंगे
भाई भाई के लिए कोई , लाक्षा गृह नहीं बनाएगा
अभिरुचि, सिद्धांत अलग हों. पर आग नहीं भड़कायेगा

पर कर्ण अभी भी समय लगेगा, जब हो तेरी इच्छा पूरी
वैचारिक दूरियां भले ही हों, पर हों न दिलों में कोई दूरी


श्रीप्रकाश शुक्ल

पूज्य भाई जी की द्वितीय पुण्य तिथि पर सादर, सप्रेम पुष्पांजलि



बीत गए दो बरस आज, पर यादें अमिट रहीं हैं
मनस पटल पर आ छा जातीं, बातें कही अनकही हैं
जैसे जैसे समय बीतता, सुधियाँ और निकट होतीं हैं
सानिध्य आपका पा लेने को विचलित हो, वेकल रोतीं हैं

केवल सामीप्य सूचना ही, अतुलित उछाह भर देती थी
संबोधन की अनुराग भरी ध्वनि, घर गुंजित कर देती थी
छोटे छोटे संस्मरण चित्र, सहसा सन्मुख आ जाते हैं
मन खो जाता अतीत में नेत्र अश्रु कण ढुलकाते हैं


कितना अपनत्व छलकता था, गोपाल, राम उच्चारण में
पा ,रा, के खिंचते हुए दीर्घ स्वर, भरते थे खुशियाँ मन में
हलो, श्रीप्रकाश शब्दावलि जब कानों से टकराती थी
आ पहुंचा शक्ति स्रोत अपना, भावना उमड़ भर जाती थी


जब बिखरे हुए विशद कुनुबे में, बांछित मंतव्य नहीं आये
हम सभी हुए हतप्रभ हताश, दुःख के बादल आ मडराये
सान्त्वना पूर्ण सुविचारों की, गठरी ले साथ आप आये
जैसे ऊँगली थामें मुट्ठी में, कोई सड़क पार करबाये


बिना आपके आज सभी, हम निपट अकेला पाते हैं
जीवन क़ी हर इक गतिविधि में आप याद आजाते हैं
आज खड़े पुष्पांजलि देते ह्रदय विदीर्ण हुए जाते हैं
आप रहें प्रभु के समीप ही, हम सब यही मनाते हैं

श्रीप्रकाश शुक्ल