Saturday 26 July 2014

मनोदशा एक प्रोषित कवि की 

जब कविता प्रेमाकुल मचले बिम्ब अनेकों खुद मड़रायें 
खिड़की चोखट सांकल खटिया शतरूपे की उपमा पायें 
तारे चन्दा गगन चांदनी आपस में घुल मिल बतियाएँ 
पत्ते पतझड डाल डालियाँ पंचम स्वर में गाना गायें 

परस उँगलियों का मधुरस हो साडी दे सतगुणी पुलक भर 
पुरबा के झोंकों से बिखरे केश भरें मन में मादक स्वर  
पायल की रुन झुन की ध्वनियाँ  करके पार सात सागर 
कानों में आ सिहरन भर दें, नाच उठें जड़ चेतन  नागर 

समझो भारत का इक पंछी  फंसा हुआ स्वर्णिम पिंजड़े में 
उलट पुलट सुधियों के पन्ने खोज रहा अपनों को मन में  
सोच रहा अब कैसे निकलूं  काटूं कैसे  ये कनक सलाखें 
कैसे तोड़ूँ ये बंध सघन से कैसे  फड़काऊं सिकुड़ी पाँखें  

श्रीप्रकाश शुक्ल  
किसी की अधूरी कहानी

किसी की अधूरी कहानी कहूँ, 
या कहूँ ये कहानी है सारे जहाँ की 
यहाँ खुद ही खोया हुआ आदमी है 
दिखायेगा सच राह किसको कहाँ की 

मुंह पर चढ़ाये हुए हैं मुखौटे, 
असलियत को छुपाये जिए जा रहे हैं 
ख़लीफ़ा बनें कैसे सारे जहाँ के 
क़त्ल अपने सगों का किये जा रहे हैं 

किताबी उसूलों को रख ताक पर 
पाप क्या पुण्य क्या है समझा रहे हैं 
कहानी न अब तक जो बिस्मिल हुयी 
नेस्त नाबूद कर खुद पै इतरा रहे हैं 

ये  हैं  इन्सान या फिर हैवान हैं, 
जो इंसानियत को मिटाने चले हैं  
बेगुनाहों को जो,बारूद में झोंक दे 
कैसे वो या कि उनके सलीके भले हैं 

अमन चैन की ले के ख्वाइश जो 
दिल में, अल्लाह से कर रहे थे दुआ  
आज उनका ही घर जंगे-मैदां बना 
समझ से परे है,  ये कैसे हुआ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
शेष कुशल है 

भूटान भ्रमण कर लौटे मोदी, देखा संसद में हलचल है 
मुंह लटकाये मंत्री बैठे, वादी विपक्ष में खिला कमल है 

उन्हें बताया गया आज शेयर बाजार औंधे मुंह लुढ़का, 
पूँजीपत सारे चीख रहे हैं, सब के माँथे पर बल है 

कारण है इराकी मसला जिसके परिणाम विषम होंगे   
मंहगाई फिर उफान लेगी, लगता इसमें कोई छल है  

बोले, ईराकी मसला छोडो, क्या घर में शेष कुशल है 
जो घट रहा है उस दुनियां में आपस के कुभाव का फल है 

संभव है, आयात तेल का अर्थ व्यवस्था को यति दे,
पर हमें धैर्य रखना होगा, सार्थक चिंतन का ये पल है 

अपनी पूज्य धरा के अंदर भरा हुआ भंडार असीमित, 
इस "श्री "को बाहर लाएंगे हांथों में कुदाल बाजू में बल है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपने अम्बर का छोर 

भक्ति भाव से अनुरत हो करना चाहूँ मैं  गान 
अपने अम्बर का छोर हमें दे माँ शारदे  महान 

जब भी भाव उमड़ अंतस से अधर कोर तक आया
शब्द नहीं संगत दे पाये बिखरी लय अरु तान 

सुना, भाव की तू भूखी है, आडम्बर नहीं पसंद तुझे 
निर्मल मन से आ पहुंंचा हूँ, यद्यपि मैले परिधान 

बुद्धि दायिनी गीत बोधिनी संगीता तू जग माता 
तू ही एक अकेली है, जो  निरसित करती अभिमान 

मैं हूँ एक अकिंचन माँ "श्री" शरण हमें दे नेह हमें दे 
मन से मेरे मिटा अँधेरे,  ज्योतित  कर संज्ञान 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

अपने अम्बर का छोर 

नारी, पुरुषों के जीवन में इक छायादार बृक्ष बन आयी  
जिसके  नीचे बैठ पुरुष ने अपनी सारी व्यथा भुलायी 

नारी ने सदा समर्पण को अपने जीवन का ध्येय चुना 
अपने अम्बर का छोर दिया चाही ना कभी भी प्रभुतायी  

पुरुष सोच कितनी निकृष्ट नारी अर्पण कमजोरी समझा 
विकृत प्रवित्ति के बसीभूत, दुष्कर्मों की मर्यादा ढायी   

घटते समाज के मूल्यों का विश्लेषण अति आवश्यक है 
अतिशय लगाव सुख साधन से लगता है उत्तरदायी ? 

हालात इस तरह बिगड़े "श्री" आकुंठन से सिर झुकता है 
लोक तंत्र सुदृढ़  है, फिर भी, कैसे ऐसी स्थिति आयी   

श्रीप्रकाश शुक्ल 




अपने अम्बर का छोर

                  अनुस्मारक 

तू है एक वायु सैनिक, धूलिध्वज से लड़ना सीखा 
बाजों के पर लगा स्वयं में अम्बर में उड़ना सीखा  
यदि कोई दुस्साहस कर सीमा के तार तोडना चाहे 
तो प्रतिज्ञ, अविचल रह कर अपचार न होने देना  
अपने अम्बर का छोर न छूने देना । 

तू ने जटायु सम भर उड़ान सारे नभ की सीमा नापी  
तेरे हाथों निर्मित यानों से, दुश्मन की रूहें काँपी  
अपने वितान की सीमा का संरक्षण तेरा मुख्य धर्म है  
जब तक शेष सांस है तन में, अपकार न होने देना  
अपने अम्बर का छोर न छूने देना । 

कई बार दुश्मन ने तेरा बल पौरुष आकर आँका 
मुंह की खाकर लौट गया फिर न कभी बापस झाँका   
अब शक्ति हीन,साहस विहीन पस्त हुआ चुप बैठा है  
फिर भी एक सजग प्रहरी बन, छद्मबार न होने देना   
अपने अम्बर का छोर न छूने देना । 

तू ने सीखा है, नभ छूना है तो छूना है धवल कीर्ति से 
कोई थाह अजेय नहीं, यदि शौर्य सुशासित हो मति से  
हम कतई विश्वास ना करते, आँखें तरेर जग को देखें 
पर यदि कोई चिंउटी काटे, तो चैन न फिर लेने देना  
अपने अम्बर का छोर न छूने देना । 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
इसने मिसरी घोली

कोई भी मंतव्य धारणा, बहुधा निरपेक्ष नहीं होते 
पूर्वाग्रह मानस में भरकर संस्कार का बोझा ढोते 
कैसे करें आंकलन, अभिमत कौन देश के हित में
कौन समेटे स्वार्थ भावना, उपजे  कौन विरति में 

ऐसे ही निर्णायक क्षण से अभी अभी भारत गुजरा 
किसको उखाड़ फेंकें सत्ता से किस को बांधें सहरा 
भ्रष्टाचार कुशासन दोनों सियासत के दो मोहरे थे 
करनी कथनी मेल ना खाती सत्ता के रंग दोहरे थे  

लोग लुभावन बादे अनगिन, बिखर गये थे ठौर ठौर 
पर जनता के आर्त ह्रदय में  सजे हुए थे  सपने और  
वैष्णव सुर की चाहत सहसा उमड़ पड़ी अरमानों में 
जन  सैलाब  उठाया इसने  मिसरी  घोली कानों में 

फिर क्या था भाईचारे की बज उठी  दुंदभी  हर घर में 
मंदिर मस्जिद और चर्च की बजी घंटियाँ इक स्वर में
खर पतवार सड़ रहा था जो फेंका निकाल घर के बाहर 
सत्ता सौंपी संत जनों को एकत्व हमारा हुआ उजागर   

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अभिमंत्रण

सुनों सुनो ओ भारतवासी, बोल रहा मैं दिल्ली से 
सीना तान के रहना जग में डरो न भीगी बिल्ली से 
याद रखो अपने भुजबल से वहां खड़े हो जहाँ खड़े हो 
नहीं किसी से कमतर हो तुम लाड़-प्यार से पले बढ़े हो 

जिस दिन तुमने भारत छोड़ा हमने चाय पिलाई थी 
दिल मसोस के खड़ा रहा मैं  आँख मेरी भर आई थी 
माँ -बापू को तुमने अपनी  मजबूरी समझायी थी 
मैं सुनता चुपचाप रहा वो घड़ी अधिक दुखदायी थी 

मैंने कमर कसी थी उस दिन गंगा पुत्र याद आये थे    
जीवन के सुखमय क्षण मैंने जन सेवा भेंट चढ़ाये थे 
याद तुम्हारी भरे ह्रदय में जन जन से संपर्क किया 
संकल्प आज पूरा करने , माँ गंगा ने आशीष दिया 
 
आज यहां पर खोल रहा हूँ साधन सुख सुविधा के सारे 
यहाँ  आपका  अपना  घर  है  खुले  हुए हैं सारे द्वारे 
खुली बाँह आवाहन करता पथ में नयन बिछाये हैं 
बीती घड़ी कष्टमय दिन की अब अच्छे दिन आये हैं  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
वात्सल्य का कंबल 

जब  भी  राह न पाता हूँ माँ , घिरता  चारो  ओर अँधेरा  
पाथेय  हमारा  बन  जाता है, वात्सल्य  का  कंबल तेरा  

जब विपत्तियों का पहाड़, अनजाने आ सर पर गिरता है   
टूट बिखर जाती तब निष्ठा, ईश्वर से  भी मन फिरता है  
लगता सब  कुछ खो बैठा हूँ, अब तो जीवन ही निसार है  
संभवतः यह नियति हमारी, जिसने हम पर किया बार है  

आबाज आपकी  धता बताती, कहती ये कायर पन  मेरा 
नियति नहीं आश्रित संयोग पर, श्रम ले आता नया सवेरा   

जब  मौसम  का तापमान, गिरते  गिरते इतना गिरता है 
हाथ  पाँव  ठंडे  पड़  जाते, सुलझा सब काम  बिगड़ता है 
दृढ़ निश्चय की निर्भय प्रतिमा बन,तब तुम माँ आ जाती हो   
उलट  पलट  फंदे  विवेक  से, उलझी  गांठे  सुलझाती हो 

मंत्रणा आपकी  धैर्य  बंधाती, कहती है ये  मन  का फेरा  
तब ओढ़, चैन से सो जाता हूँ , वात्सल्य का  कंबल तेरा  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

समय चक्र की गति से 

जीवन क्रम के समय काल में मौसम के बदलते फेरे हैं 
मिलती कभी धूप हंसती सी कभी बदलियों के घेरे हैं 
अक्सर यही सोचते हम मेरे ही घर क्यों गाज गिरी 
मेरे हाथों से तो कभी, सपने  में  भी चीटी  न मरी 

पर क्योंं नहीं समझ पाते  समय चक्र की गति अबाध है 
भूत भविष्य और वर्तमान में होना  इसका  निर्विबाद है 
शायद यही मूल कारण है अनवरत चक्र चलता रहता है   
और नियति की मार हर कोई, कर्मानुसार  ही सहता है 

पर जब समय चक्र की गति से तारतम्य बन जाता है  
तो फिर मंजिल बने सुगम फल श्रम का मिल जाता है  
वो विचार सब से बलशाली जिसका "समय"आ गया है 
जिसने सुख दुःख हँस कर झेला जीने का अर्थ पा गया है 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल