Friday 15 June 2012

मुक्तिका ०५७  

दिल का प्यार समझना है, तो आँखों की चितवन देखो 
दर्द  मापना है दिल का, तो पलकों की छलकन देखो  
 
लाज भरी आकांक्षाओं को, शब्द नहीं बतला सकते  
 इन्हें परखना चाहो तो, पुतली की पुलकन देखो 
 
भाव ह्रदय के रुंधे कंठ से, अक्सर नहीं निकल पाते 
अगर इन्हें पढना हो, तो फिर होंठों की फडकन देखो
 
अनुवाद नयन की भाषा का, नहीं हुआ सम्भव अब तक,
क्या कहती रतनारी आँखें,  दिल की  धड़कन  छू  देखो 
 
बादे झूठे, रस्में झूठीं, दिखी सभी करतूतें झूठी ,
दुनिया में यदि रहना है, तो अपने मन की अड़चन देखो 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 


गुलमुहर  ने बाँह में भर 
गुलमुहर ने बाँह में भर, हँस,पथिक को यूं पुकारा  
 बैठो यहाँ विश्राम करलो, भूल जाओ क्षोभ सारा   
   झुलसा रहा है गर्म मौसम,लू तपिश भीषण घनी हैं  
       और बढती प्यास  से, इन्सान की साँसें तनी हैं 
क्यों व्यथित. सोचो तनिक और मन की गाँठ खोलो  
सुन रहा हूँ मैं, झिझक बिन, आज अपनी बात  बोलो   

यह  महल अट्टालिकाएं सामने  हंसतीं खडी जो  
  तेरे श्रम की  ही बदौलत  आज हैं  खुशहाल वो  
    क्या हुआ जो आज तेरे पास कोई घर नहीं  है 
      चैन से सोता तो है दिल  में कोई भी  डर नहीं है 
दूसरों  की  डगर में खुशियाँ हजारों जो  भरें  
भाग्यशाली कौन उन सा काम जो परहित करें  
देख तू मुझको, तपन से सारे पत्ते झर गए  
  पर रंग लाया स्वेद बहना फूल आँचल भर गए 
   भेजती है प्रकृति भी मुझको सदा ऐसे समय  जब 
     हैं दहकती आग से तपते  झुलसते जीव सब  
तुझको यहाँ भेजा गया, ऐसी नियति देकर धरा पर
संबल बनो असहाय का, हो परस्थिति जब भी दूभर  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Tuesday 5 June 2012

मुक्तिका 054
मैं  हूँ गायक अपने ढंग का, राग अनछुए गाता हूँ  
नैराश्य ओढ़ जो सोये हैं, उनको झकझोर जगाता हूँ 
 
निश्चय होगी धूप डगर में, झुलसेगा तन मन सारा 
जो ख़ुशी ख़ुशी तैयार, झेलने, साथ उन्हें ही ले जाता हूँ  
 
राहें कभी नहीं बदलेंगी, युग युग से जो चली गयीं
अपनी राह बदल  लो खुद से, मूल मंत्र  ये  बतलाता हूँ 
मन  में जो संदेह उग बढे, ले बैठे आकार ताड़ का , 
अपने  भी घर में अब  कोई,  मीत नहीं मैं  पाता हूँ 

महज़ ऊँचाई पा लेने से, मन को शांति नहीं मिलती,
शांति चाहिए? प्यार बाँट दो, यही रोज समझाता हूँ 

सादर 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
जिन्दगी के ओ बटोही यह नहीं विश्रांत का पल 

ओ बटोही, आप चल आये डगर इक़ बहुत लम्बी,

   और पथ में कीर्ति के स्तम्भ भी  अगणित गढ़े हैं 
      पर अभी भी है विकल, मख भूमि विश्वामित्र की,
          शांति जिसकी भंग करने, खल सुबाहु से खड़े हैं  

आज भी है आत्म गौरव, क्षीण, जर्जर, त्रस्त, दुर्बल
जिन्दगी के ओ बटोही, यह नहीं विश्रांत का पल 

शोषण, दमन का सांप, जो डसता रहा है युग युगों से
    आज भी वो मुंह छुपाये, भेष बदले जी रहा है 
       आज  भी पीड़ित उरों में, पल रही जड़ता, निराशा,
          ज भी दुखिया, तृषित चुपचाप आंसूं पी रहा है 
आज गुंजित हो रहा ,जन चेतना का स्वर प्रबल 
जिन्दगी के ओ बटोही, यह नहीं विश्रांत का पल
जाग्रत हुआ है आज जनपद और उमड़ा जोश जन  का
   आज सड़कों पर खडे कटि बद्ध हैं, अनगिन  कदम   
      ठोकने को कील अंतिम, छद्म चालों के कफ़न पर,
         जन समर्थन साथ ले, लड़ना पड़ेगा अथक  हरदम      
जागो, उठो भवितव्य का, निस्सार हो न कोई कल
जिन्दगी में ओ बटोही ,यह नहीं विश्रांति का पल

श्रीप्रकाश  शुक्ल