Friday 27 May 2011

भंग हुआ ज्यों सपना


झांसा देते रहे दोस्त को,
गढ़कर झूंठे नए कथानक I
भिक्षा में पाते जो टुकड़े ,
रचते उससे कृत्य भयानक II


आतंकी गतिविधियों से,
ढाया जग में नित्य कहर I
नीवं मित्रता की आधारित,
अविश्वास की रेती पर II


फिर जब समझे चतुर मित्र,
कैसे वो अब तक छले गए I
आ धमके डोली लेकर,
दूल्हा औ सामां ले चले गए II


सारा आवाम था हैरत में,
ठनकाता माथा अपना I
आँखें फटीं, फटीं, रह गयीं ,
भंग हुआ ज्यों सपना II

श्रीप्रकाश शुक्ल

चिरस्मरणीय मेरी माँ


गंगाजल सा पावन मन था
हिमगिरि सा व्यक्तित्व महान
शब्द नहीं जो कर पायें हम
अम्मा तेरा गौरव गान


तीर्थराज सा गरिमामय,
माँ था सानिध्य तुम्हारा
देव तुल्य वह "पूर्ण" रूप है
अब आराध्य हमारा


ओजभरी वाणी थी तेरी,
तेजमयी तन्वंगी काया
तेरी प्रतिभा और ज्ञान को
किस किसने न सराहा


अगर किसी ने कठिनाई में
द्वार तेरा खटकाया
खुली बांह से निर्मल मन से
उसे तुरत अपनाया


सोचा न कभी, है निजी कौन,
और है, कौन पराया
दुर्बल कन्धों पर भी तुमने
कितना बोझ उठाया


तेरे संरक्षण में पनपे
हम कितने बडभागी
पद चिन्हों पर चला करेंगे
हम तेरे अनुरागी


तेरी पावन स्मृति से होंगे
पंथ प्रशस्त हमारे
प्रेरक स्रोत हमारे होंगे
जीवन मूल्य तुम्हारे



श्रीप्रकाश शुक्ल
फूल ने सीखा महकना


फूल ने सीखा महकना , और बिखरायी सुरभि,
देता रहा आनंद नित , भूला न खिलना, खिलखिलाना
तारिकाएँ , बंध तिमिर भुज पांस में
आतना सह्तीं रहीं , पर न छोड़ा जगमगाना



अजानी राह जीवन की, कठिन , काटों भरी है
और गठरी फ़र्ज की, कमजोर कन्धों पर धरी है
मुश्किलों की आंधियां, आकर संजोया धैर्य हरतीं
टूटता विश्वास पल पल, मंजिलें गिरती, संवरतीं


पर तूं मानव बुद्धजीवी, अक्षम्य तेरा लडखडाना
पार कर अवरोध दुर्दिम, बस तुझे चलते ही जाना
टूट जाए तन, न टूटे मन, न छूटे मुस्कुराना
हर कृत्य फैलाए सुरभि, हर शब्द बन जाये तराना


याद तूं करले, उन्ही को याद करते है सभी,
निज स्वार्थ से उठकर, पराये काम करते जो कभी
सुन कहानी दर्द की, पीड़ा उमड़ कर बह निकलती
इंसानियत जिनके दिलों में, रोज उगती और पलती,


फूल ने सीखा महकना , और फैलायी सुरभि,
देता रहा आनंद नित,, भूला न खिलना, खिलखिलाना




श्रीप्रकाश शुक्ल