Monday 28 October 2013

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये 

दीप सद्भाव के ही निरंतर जलें, पाठ ये हम जगत को पढ़ाते रहे    
राह हर धर्म की साथ में ही चले, राह ऐसी जगत को दिखाते रहे   
समर्थन दिया सत्य को ही सदा, भाल जिससे हमारा कहीं झुक न जाये   
शांति के हम पुजारी की जो साख है,  रक्षित रहे कभी मिटने न पाये      

रखो रोक कर आंधियां प्यार से, जलता दिया कोई बुझने न पाये    
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये  

सम्पूर्ण जग को ही धेरे हुये है, सुनामी अनाचार अनियाउ की 
ललक धन परिग्रह की  इतनी प्रबल, कड़वी लगे राह सद्भाव की 
डर है कभी शिष्टता छोड़कर, मानसिकता न इतनी कहीं डगमगाये 
मूर्ति पावन धरा की जो मन में सजी, दिशाहीनता से सहज टूट जाये 

परवरिश हर चमन की हो इस तरह, कोई अधखिला फूल झरने न पाये  
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये 

समय आगया, हो अँधेरा जहाँ, उस तरफ भी चलें हम कदम दो कदम 
निभाते रहे स्वार्थ को अब तलक, पीर औरों की भी कर सकें कुछ तो कम   
अँधेरे में बिंध अब तलक जो रहा, उसे आज कोई न फिर भूल जाये   
संकल्प लें आज उसके बिना, सौख्य साधन न जीवन का कोई सुहाये  

आस अक्षुण रहे हम अकेले नहीं, कोई हार कर जिन्दगी न बिताये 
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Sunday 13 October 2013

वेदना पर चेतना की जीत होगी

जिन्दगी में सुख-दुःख के पल, सतत आते गुजरते 
नभ में दिखी लाली भी, देखे कभी तारे बिखरते   
उद्देश्य जीवन का समझ, समभाव से जिसने जिया  
नदिया दुखों की पार कर, आनंद जीवन का लिया 

जो मध्य पथ में रुक गया, कैसे कहूं था कर्मयोगी 
वेदना पर चेतना की जीत होगी 

दबकर व्यथा के भार से, विश्वास खो देता है मन 
आशायें बुझती सी दिखें, ध्वस्त दिखते सब सपन 
ऐसे समय पर शान्त्वना के शब्द लगते अति भले 
चेतना यदि जाग जाये, कम चुभन दुःख की खले 
         
नैराश्य में जो रंग भरे वो प्रीति की ही रीति होगी 
वेदना पे चेतना की जीत होगी 

रोना, रोना व्यथा का, दिखती न कोई समझदारी 
लोग करते हैं हंसी, लेता  ना  कोई  हिस्सेदारी
ये आपदायें क्षणिक तो, गहरायेंगी, डरपायेंगी 
पर चेतना हो बलवती, तो खुद व खुद मिट जायेंगी  

पग रहें गतिमय अगर, हर थाप पग की गीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी 

श्रीप्रकाश शुक्ल 





वेदना पर चेतना की जीत होगी 

परिवेश सारे जगत का,आज चिंताजनक है 
द्वेष की चहुँ ओर ही, देती सुनाई खनक है
अनुदारता  की भावना,हर ह्रदय में पल रही  
प्रतिशोध की ज्वाला, द्वार पर ही जल रही 

दुःख दारुण हो निवारण कौन सी वो नीति होगी 
वेदना पर चेतना की जीत होगी 

अह्सास सुख और दुःख का मानसिक इक कृत्य  है 
अंतर न कर पाना, निपट अवबोध का अल्पत्व है  
संज्ञान कर जो परिस्थिति, ले सका निर्णय सही 
जिन्दगी की डगर उसकी, सदा ही उज्ज्वल रही 

यदि सजग, तो पूतना अनुसाल की  होगी 
वेदना पर चेतना की जीत होगी

क्या  हुआ जो आज सारे मूल्य थोथे पड़ गए 
स्वार्थ रक्षण हेतु सब सदभाव  मैले  पड़ गए 
तन मनन की सहज वृत्ति आज रूठी सी पड़ी 
सम्पूर्ण जग को निगलने,समय की सुरसा खड़ी 

विश्व शांति  सृजन में  सद्भावना  ही मीत होगी 
वेदना पर चेतना की जीत होगी

श्रीप्रकाश शुक्ल 


पग में गति आ जाती  है छाले  छिलने से

पग में गति आ जाती है, छाले  छिलने से 
सोई उर्जा जग जाती है मात्र चुनौती मिलने से  

जीवन में संघर्ष कभी बेकार नहीं जाता है  
पत्थर कट जाता है, अविरल रस्सी चलने से 

सोना तपकर ही आभूषण में ढलता है 
सिंहपुत्र होता बलशाली केवल जंगल में पलने से 

कड़ी धूप में तपने से चहरे का रंग निखरता है  
हिना रंग भर लाती है, घुटकर दलने से 
 
अवरोधों से लड़कर ही जीवन का सुख मिलता है 
दाने अनाज के खिल उठते हैं,जलने  से 
 
कितना दुष्कर होता है एकाकी जीवनयापन  " श्री "
आशाएं बुझी पनपतीं है, साथी मिलने से 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
पग में गति आ जाती  है छाले  छिलने से

पग में गति आ जाती है छाले  छिलने से 
निद्रित कुब्बत जग जाती है आहव मिलने से  

जीवन में संघर्ष कभी बेकार नहीं जाता है  
पत्थर कट जाता है, अविरल रस्सी चलने से 

सोना तपकर ही आभूषण में ढलता है 
सिंहपुत्र होता बलशाली केवल जंगल में पलने से 

कड़ी धूप में तपने से चहरे का रंग निखरता है  
हिना रंग भर लाती है, घुटकर दलने से 
 
अवरोधों से लड़कर ही जीवन का सुख मिलता है 
दाने अनाज के खिल उठते हैं,जलने  से 
 
कितना दुष्कर होता है एकाकी जीवनयापन  " श्री "
आशाएं बुझी पनपतीं है, साथी मिलने से 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
पूज्य भाई जी के चौथे निर्वाण दिवस पर श्रद्धा सुमन 

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक  गूंजती, गूंजती 
बन्धुओ मिलकर रहो, मिलकर रहो, मिलकर रहो  

भौतिक सुखों की चाह का अंत कोई भी नहीं,  
पाओगे जितना ही, उतना लोभ बढ़ता जाएगा, 
संभव नहीं तुम कर सकोगे, लालसा मन की सफल 
शांति मन की दूर होगी, हाथ कुछ  आयेगा

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक गूंजती, गूंजती,  
पंथ सेवा का गहो, परमार्थ का ही पथ गहो 

जीवन डगर है बहुत मुश्किल, अडचनें पग पग खड़ी  
पार कर लोगे अकेले, ये तुम्हारी भूल है
साथ ले सब को चलोगे, रास्ता कट जाएगा 
सोच आधारित अहम् पर, सर्वथा निर्मूल है  

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक गूंजती, गूंजती, 
साथियो मिलकर चलो, मिलकर चलो मिलकर चलो 

आवाज़ ये उसकी नरों में, जो रहा उत्तम सदा, 
काम औरों का रहा, अपने से बढ़कर सर्वदा  
भाव सेवा का समेटे, जो सिमट कर खुद रहा 
आज उसको ह्रदय मेरा, नमन शत शत कर रहा 

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक  गूंजती, गूंजती 
बन्धुओ मिलकर रहो, मिलकर रहो, मिलकर रहो  

                               समस्त परिवार   
                              २१ सितम्बर २०१३ 

फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

भारी भरकम भीड़ मगर, फिर भी आवाजें सुन लेता हूँ     
किसमें शोर शराबा, किसमें है संगीत मधुर, चुन लेता हूँ    

छल छद्म द्वेष से भरे पडोसी, बात मित्रता की करते हैं    
मुझे पता है, सब धोखा है, पर फिर भी मैं सुन लेता हूँ   

झेल न पाते खींचा तानी, रिश्तों के कच्चे धागे जब ,  
चढ़ा प्रेम का पक्का पानी, दस्तरदां बुन लेता हूँ  

मिथ्या आरोपों को सुनकर, भी होंठ सिये बैठे हैं जो  
अवसाद भरा कितना उनमें, मैं दिल टटोल गुन लेता हूँ

मनुसाई से बढ़कर कुछ भी भाव न होता जग में  "श्री "  
फिर भी न रेंगता जूँ कानों पर, सोच रोज़ सर धुन लेता हूँ  

श्रीप्रकाश शुक्ल  
फिर भी मैं  सुन लेता हूँ 

चलती फिरती छाया सी घर में   
हर समय लिए कुछ ना कुछ कर में  
उठ तडके प्रातः नित , मध्य रात्रि तक  
काम काज से नख चोटी तक थक    
बिस्तर पर आकर  गिर जाती है 
कैसी हो ? बता नहीं पाती  है 
मैं स्वेद बिंदु गिन लेता हूँ   
क्या बीत रहा है गुन लेता हूँ  
     फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

कोई कैसा भी काम बिगड़ता  
आ दोष सदा उसके सर मढ़ता  
घर भी देखे,  देखे दफ्तर भी 
लगती विविधि प्रयोजन प्लग सी 
कहने को तो है गृह की लक्ष्मी 
सारी निधि लुटा रहे सहमी सी 
हो व्यथित सिर्फ सर धुन लेता हूँ 
छलके मोती कण चुन लेता हूँ 
    फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

वो है मेरे  सांसों की  सरगम 
वो है मेरे घावों की मरहम  
मेरे उपवन का हरसिंगार 
मेरे सुखमय जीवन की बहार 
उसके पोरों की मात्र छुअन 
हर लेती मन की सभी तपन 
साथ उसे पा, स्वप्न नए बुन लेता हूँ 
    फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपना झूठ सही करने को  देते हैं वे तर्क हज़ारों 

जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति, हम संस्कार से पाते हैं 
मूल रूप जिसका थिर रहता, कभी बदल ना पाते हैं 

बेल करेले की चन्दन पर, चढ़ी रहे कितने  भी दिन 
थोड़ी सुबास तो आ सकती है, कटुता नहीं मिटा पाते हैं

हर समाज में कतिपय जन, स्वेच्छा से चुन कई मुखौटे, 
छद्म वेश में रहने की ही, जीवन पद्धति अपनाते हैं 

बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता से, अपने भविष्य की दशा आंक,  
यदि आगे काम निकलता हो, तो गधे को बाप बनाते हैं 

अपना झूठ सही करने को,  देते हैं वे तर्क हज़ारों 
अपने पांडित्य प्रदर्शन को, हर विषय में टांग अड़ाते  हैं 

कोई भी, बालक, महिला या हो जान छिड़कने वाला,
कुछ भी अंतर नहीं व्यर्थ ही, सभी दुलत्ती खाते हैं   
 
स्वार्थपरक ऐसे मानव, दूर शिष्टता से कोसों "श्री "
हर टोली, हर समाज में, भार रूप समझे जाते हैं 


श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपना झूठ सही करने को देते  है वे तर्क हजारों 

हर समाज इक उपवन है, रोपते जहाँ जन पुष्प हजारों 
पर अनचाहे ही उग आते हैं, ज़हरीले से खार हजारों 

कुछ अभितप्त अहम् के बस, फंदा फरेब का हाथ लिये 
अपना झूठ सही करने को, देते रहते है तर्क हजारों 

नहीं जानते काठ की हांड़ी, चढ़ती है बस एक बार ही 
पश्चात, कलई खुल जाने पर मुंह की खाते बार हजारों 

चालाकी चाटुकारिता की, ओढ़े अमरबेल सर ऊपर 
अपना उल्लू सीधा करने, छुप छुप करते बार हजारों 

कैसी विडम्बना है ये, कि पढ़े लिखे शिक्षित जन भी 
स्वच्छ नीर को गर्हित करने, मिल जाते हैं साथ हजारों 

दोष कहाँ है, शिक्षा का या संस्कार का, कैसे जाने "श्री"
कदम कदम पर भरे पड़े हैं, इस जमात के लोग हजारों 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

चीनी घुसपैठ


चीनी घुस आये सीमा में, शासन  पर प्रतिबन्ध अनेकों 
अब यह दायित्व फौज का है, सबक सिखा  बाहर फेंको   
केवल शब्दों की  दस्तक से, शर्मदार ही भय खाते हैं 
जो चोला ओढ़े बेशरमी का, फन उनके कुचले जाते हैं  

पर ये कैसे हुआ, कहाँ थे, निर्धारित  सीमा  प्रहरी 
क्या दारू पीकर सोये थे, कर बैठे गफलत गहरी 
या दुश्मन ने एक बार फिर, वही पुरानी  चाल चली
भेज मेनकाएँ सीमा पर, सीमा  रक्षक की बुद्धि छली 

इतिहास साक्षी है इनकी निशदिन घुसपैठी चालों का 
बाहर खदेड़ दो घुस आयें फिर, सर घूमे  रखवालों का 
लातों के भूत ना माने बातों से, हम  नस पहचानते हैं  
सेना सक्षम है हर प्रकार, कैसे निपटें,  वो  जानते हैं  

फौजे विश्वास नहीं करतीं, छुप छुप फेंके हथकंडों में 
करतीं प्रहार बस एक बार कम्पन उठता भू खण्डों में 
अच्छा होगा यही कि दुश्मन करे आंकलन शक्ति का 
शिष्टता न आंके फौजों की पर्याय नहीं अभिव्यक्ति का 

श्रीप्रकाश शुक्ल