Wednesday 17 August 2011

चीटियाँ और हाथी


एक सीलन भरे,
घुप अँधेरे,
कोष्ट में,
थकी हारी,
मै अकेली
लड़ रही थी
कुरूप दुष्ट चीटियों से,
जंगली हाथियों से,
डर रही थी
बिखर रही थी
व्यस्त थी
त्रश्त्र थी 
पस्त थी
और कण कण ध्वस्त थी


एक मित्र आया
था अचंभित,
बोला
अरे चीटियों में,
हाथी दिखा कैसे ?
यह तो तुम्हारा भ्रम है
एक दूसर मित्र पहुंचा
बोला
अरे यह तो चीटियाँ ही है
हाथी कहाँ ?

हम तो देख सकते हैं
साफ़ साफ़ ,
यह तो तुम्हारा भ्रम है

फिर मैंने आँख खोली
और देखा झांक,
बह चुके थे
आंसू कितने
अब तक ?

क्या कोई चीटियाँ थीं
या कोई हाथी था वहां ?
या फिर मैं लड़ रही थी
केवल अपने भ्रम से ?

श्रीप्रकाश शुक्ल
मैं अकेली लड़ रही हूँ

हे मनु पुत्र, तुमने आज तक जो, नीति विधि के नियम बांधे
सोचे बिना औचित्य क्या, प्रतिबन्ध कर, बेखौफ लादे
इन रीतियों का भार ढोते, थक गए काँधे हमारे
होता नहीं चलना सहन, अब दूसरों के ले सहारे

निष्प्राण कर इन रूढ़ियों को, भर कफ़न ,
पुरुषार्थ की कीलें नुकीली, जड़ रहीं हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

मैं जानती अच्छी तरह, है काम यह मुश्किल बड़ा
पर पत्थरों के बिना फेंके, फूटे नहीं कोई घड़ा
भरते रहें कितने घड़े, उनको न कोई है फिकर
जूँ न रेंगे कान पर, मनुष्यत्व जाए भले मर

ये कलुषता मेंटकर ही, चैन की मैं सांस लूं
इस अमिट संकल्प में, मैं सदा से दृढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

पाश फैलाए कि, शोषण हो सके पर्यंत जीवन
लिंग के आधार पर, चलता रहे अधिकार बंटन
विधि के प्रपत्रों में समूचा, पुरुष का ही हाथ हो
पुरुष को माने जो प्रतिनिधि, वो ही महिला साथ हो


धारणाएं बन न पायें, प्रष्ट नव इतिहास का
ऐसा अभेदी चक्रव्यू, मैं संगठित हो, गढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ

रासायनिक वो तत्व जिनसे, प्रकृति ने तुमको रचा
वो सभी मुझ में समाहित, है वही पंजर समूचा
बुद्धिबल अन्विति पर, जिसका तुम्हें अभिमान है
कम न तिलभर पास मेरे, इतना मुझे भी भान है

जिस किसी भी क्षेत्र में प्रतिमान जो तुमने बनाये
खींच रेखाएं बड़ी, तोड़ वो मानक, सहज ही बढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ


श्रीप्रकाश शुक्ल



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प्राण बूँद को तरसे


बीता असाढ़, आया सावन, बहती बयार, शीतल मनभावन
आये घिर बदरा, गगन मगन, हर्षित उल्लसित, धरा पावन
आतुर अधीर , संतप्त धरणि, प्रत्याशित दृग नभ ओर टिकाये
पहली फुहार की बाट जोहती, कसक भरे मन, मन ललचाये

फूटने लगीं कोपलें म्रदुल, तरुवर की शुष्क टहनियों में
झुरमुट से झींगुर की झीं झीं , भरती झनकार धमनियों में
नभ से टप टप झरतीं बूँदें अंतर्मन ऐसे सिमटीं
बरबस बिसराई सुधियाँ गत की, अनायास ही आ लिपटीं

पड़ रही सघन बौछार, ध्वनित जैसे मल्हार, रस बरसे
पल पल बीते ,जैसे बीते युग ,जब से पिय बिछुरे घर से
पिय बिन कौन बंधाये धीर, काँपता ह्रदय अजाने डर से
भड़क उठी बेचैनी मन की, प्रिय बिन प्राण बूँद को तरसे



श्रीप्रकाश शुक्ल