Sunday 18 September 2016

किसी अधर पर नहीं

हम स्वतंत्र भारत के वासी अपना भाग्य स्वयं लिखते हैं 
फिर क्यों  द्वेष घृणा के पौधे हर घर में पलते दिखते हैं 
जैसे जैसे हम बड़े हुए, साथी सद्भाव साथ छोड़ता गया 
माल्यार्पण सुख का लालच उजले सम्बन्ध तोड़ता गया 

अपनत्व भरे सुखमय अतीत की यादें मन में वाकी हैं 
चारो ओर भीड़ उमड़ी है फिर भी जीवन एकाकी है  
किसी अधर पर नहीं दिखी,चिंता मुक्त हंसी अब तक 
अवसादों के सागर में डूबा,गुजरेगा ये जीवन कब तक 

जीवन का अपना अर्थ न होता, अर्थ डालना होता है 
जीवन तो मात्र एक अवसर है, खुद संभालना होता है 
सांसों को नयी सृजनता दो, व्यर्थ न यों बरबाद करो 
नाचो गाओ, गीत रचो, खुद को खोजो, प्रभु ध्यान धरो 

 श्रीप्रकाश शुक्ल 
कहना होगा तुम हो पत्थर 

जिस धरती पर जन्म लिया ,जिसने तुमको पाला पोषा 
जिस समाज ने भूखे रहकर तुमको पोषक भोज्य परोसा 
जिस संस्थान ने सिंहासन पर तुम्हें बिठाया गोद उठाकर 
आज उन्हीं को तोड़ रहे हो कुँवर कन्हईया नाम लजाकर 

कैसे मुंह से निकल सका आज़ादी लेंगे अपनों से लड़कर  
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो कहना होगा तुम हो पत्थर 

पता नहीं क्या धर्म तुम्हारा कौन तुम्हारा परबरदिग़ार 
क्यों घृणा उसे मानवता से क्यों भाता उसको नरसंहार 
कहते हो जन्नत देगा यदि आतंकित कर, दो बलि हज़ार 
बिन कारण उद्देश्य बिना ही ,त्रसित कर रखा घर संसार 

कितने निबोध मारे हैं तुमने क्या भरा नहीं रब का खप्पर 
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो, कहना होगा तुम हो पत्थर 

सत्ता से  प्रतिकारों  में भी, रणनीति तुम्हारी दिल दहलाती 
बंकर में रख अबोध शिशुओं को रक्त पिपासा नहीं अघाती 
लगता है मन में ठान लिया क़ायम रक्खोगे इस प्रकरण को
जब तक न रुधिर से रंजित कर दो पूर्ण धरा के कण कण को 

दुनियाँ सारी देख रही, तुम किस फ़ितरत से रचते  मंजर 
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो कहना होगा तुम हो पत्थर

श्रीप्रकाश शुक्ल 
किसके किसके नाम 

इस लंबी डगर उम्र में संचित , जीवन की सच्चाई है 
कितने साथी साथ चले कितनों ने नज़र चुरायी है 
बचपन में जो मित्र मिले सब दिलोजान से मिलते थे  
एक बार जब साथ हो लिए फिर पाला न बदलते थे 

दुष्कर राह जवानी की थी जो भी टकराया बुरा भला   
किसके किसके नाम गिनाऊँ स्वार्थ हेतु जिसने न छला 
द्वेष, ईर्षा, अनर्थभाव ने अंतस छलनी कर रक्खा था 
भावना प्रेम की  पल न सकी, तम इतना भर रक्खा था 

पहुँच गए चौथी सीढ़ी अब, देखें मुड़कर पीछे तो क्या देखें   
फिक्र तजें चिड़िया जैसे पंख छोड़ती फड़काकर अपने डैने  
जीवन घटता तिल तिल जलकर, पर इसका औचित्य नहीं  
मन की कोई उम्र न होती, क्यों लेख हार का लिखें कहीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
मेघों के कन्धों पर चढ़कर 

मेघों के कन्धों पर चढ़कर 
कितने ढीठ होगये पुष्कर 
खेत जोहते बाट रात दिन  
प्यासी धरा तड़पती तुम बिन 
नदी सरोवर ताल तलइयां तुम बिन सब बेजान हो रहे  
जीव जंतु पशु पक्षी सारे  जीवन के अरमान खो रहे  

स्तुति कर तुम्हें बुलाते है हम 
आरति कर तुम्हें रिझाते है हम 
सुनी अनसुनी कर देते हो 
धैर्य परीक्षा क्यों लेते हो 
मनुहार हमारी सुनकर तुम आते हो, जीवन देते हो 
पर अक्सर अनखाये से सुख कम, गम ज्यादा देते हो 

बहुधा निर्ममता से तोड़ो मर्यादा 
सुखदायक कम, विध्वंसक ज्यादा  
कहर ढहाते, भय फैलाते 
नगरी , गाँव बहा ले जाते 
कोई वतन नहीं  छुटता है, जहाँ तबाही न मचती हो
युक्तियाँ  तितर वितर होती हैं शायद ही कोई बचती हो



पर यह भी सच है, जब तुम आते हो
संयोगी, बिरही मन में मादकता भर जाते हो
धरती की तपन बुझा, ठंडक पंहुचाते हो
रिमझिम की तालों पर मन मयूर नचा जाते हो 


आओ तुम अवश्य आओ, प्यासेे मन की क्लांति हरो
वसुधा पर हरीतिमा बिखेर घर घर में धन धान्य भरो

श्रीप्रकाश शुक्ल 
हर कविता के कुछ अक्षर 

गीत लिखे हमने किसान के बारिश देख हुआ जो पागल
वनकर भूत जुटा बोने वो मक्का ,ज्वार ,बाजरा, चावल
इंद्र देव की  भ्रूकुटि कुटिल  थी रहा बरसता पानी झरझर
ज्वार,बाजरा तहस नहस थे सह न सके निग्रह ये दुष्कर 

सागर की उठती लहरें लख नाविक का मन झूम गय़ा
सोचा थोड़ा गहरे जाऊँ फिर ऐसा समय मिलेगा क्या ?
जाल विछाया भीतर जाकर तब तक शशिधर रूठ गये
तूफान उठाया ऐसा भीषण किश्ती नाविक सब डूब गयेे

जीवन की हरेक डगर में मिलीं अनेकों अवघट राहें 
रागों के स्वर संवर न पाये अस्फुट ही रहीं भावनाएं 
जब भी लिखे गीत खुशियों के दुख के कांटे पड़े उभर 
भूखे प्यासे दिखे बिलखते हर कविता के कुछ अक्षर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
किरणें जिसके द्वार न आईं

सबके विकास और साथ हेतु नव विकल्प चुनना होगा
किरणें जिसके द्वार न आई उसे साथ ले चलना होगा  

सत्ता के गलियारो में भी सोच आज इक नयी पल रही
जो निरास हैं जगा उन्हें इक नई चेतना भरना होगा

उद्धोगपति, सम्पन्नों से भौतिक विकास 
तो हो सकता हैं
लेकिन मानसिक विकास हेतु सस्कारों को गढ़ना होगा

सुख साधन से अतिशय लगाव मानव मन की दुर्बलता है
आसुरी प्रवित्तियों से निजात को संघर्षों से लड़ना होगा 

यद्यपि ये लक्ष्य कठिन है पर जग में होता कुछ न असम्भव
मन में भर  विश्वास अटल "श्री "संकल्पित हो बढ़ना होगा 

श्रीप्रकाश शुक्ल
हमारे पास भी 

है तुम्हारे पास जो कुछ, जिसका तुम्हें अभिमान है 
वो हमारे पास भी समुचित, इतना मुझे भी भान है  

मेरे मौन, धीरज को, मेरी तनुता समझना भूल है 
कहना मुझे असहाय अबला नारी जाति का अपमान है 

पांच तत्वों से बनी इस सृष्टि का नारी ही छटवां तत्व है
जिसका संरक्षण, जनन में अनुपमित अनुदान है 

बहुतेरी परीक्षा दे चुकी, अब और आशा व्यर्थ "श्री "
दे दो उसे अधिकार उसका, जिसका उसे स्नज्ञान है  

बदल डालो मानसिकता, कलुषता जिसमें समाहित 
नारीत्व का नेतृत्व ही, सुविकसित देश की पहचान है 

श्रीप्रकाश शुक्ल