Sunday 29 May 2016

ढूंढती मुस्कान मेरी
प्रातः से संध्या समय तक भार ओढ़े व्यस्तता का
बीतता जाता समय नित भाव भरता विफलता का 
सब कार्य तो चल ही रहे हैं  पर न दिखता चाहिए जो 
अनुभूति सच्ची निगल जाता बोध इक परपंचता का 
ढूंढती मुस्कान मेरी घर की हर दीवार कोना और वीथी 
पर मैं उसको कैसे ओढूँ, जब भाव  उर में सहृदयता का 
मैं जानती अच्छी तरह नैराश्य के ये भाव चिंता जनक हैं  
और बोध है कि  भूल है फल भोगना  भवितव्यतता का 
संकल्प ले निज लक्ष्य का और कर्तव्य पथ पर अडिग रहना 
अनुभूति सुख की संजो रखना, सद्मार्ग है "श्री" सफलता का 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
ढूंढती मुस्कान मेरी, नयन भर ममता का सागर 
माँ तू विस्मयजनक रचना, धन्य हूँ मैं तुझे पाकर 
माँ तू विधि की अवतरित प्रतिमा, माँ तू मेरी जान है 
भेजा गया तुझको धरिण पर, संरक्षिका मेरी बनाकर 
मेरे चेहरे की उदासी , बहते तेरे आँसू बताते 
जब भी पूछा हाल तेरा,हँसती रही  तू सच छुपाकर 
कब तक तलक रक्खेगी मां तू मुझको कंधे से लगा ?
ले जाता नहीं जब तलक तू, अपने कंधे पर उठाकर
जैसे लड़ती एक चिड़िया, पृथुल, लिप्तक व्याल से "श्री"
वैसे ही तू व्याधियों से झगड़, रखती रही मुझको बचाकर
  
श्रीप्रकाश शुक्ल 
अश्रु बहाने से न कभी

अश्रु बहाने से न कभी, बिगड़े हालात सुधरते हैं 
जो हरदम झूठ बोलते हैं, वो फिर कहाँ सुधरते हैं 

सत्यता सिद्ध करने पर भी, सुनने को तैयार नहीं  
ऐसे नापाक पडोसी हैं, तो बात ही हम क्यों करते हैं 
 
आतंकी घुसने का इल्जाम फरेबी कहते हैं, नहीं पता
भारत के वीरों के हाथों, निर्दोषी कभी नहीं मरते हैं 

शांति, प्रगति एवं समृद्धि, साझा दृढ़ लक्ष्य हमारा है  
इसको हासिल करके रहेंगे, हम पूरा पूरा दम भरते हैं 
 
कदम उठ चुके आगे जो, वो कभी न पीछे लौटेंगे "श्री" 
जो साहस बटोर भिड़ते हैं वो, नामुमकिन मुमकिन करते हैं    
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
अश्रु बहाने से न कभी

अश्रु बहाने से न कभी, अपनी मंजिल पा सका कोई  
नैराश्य ओढ़ जो बैठ गया उसकी नियति सदा रोई 

नवग्रहों के अवगुंठन से, बाँध रखा जिसने अपना कल 
अकर्मण्यता के बस हो उसने, अपनी सही डगर खोई 

वाम परिस्थिति झुकी सदा, संकल्पों की परिणति से  
सूझ बूझ और कर्मठता से, पुष्पित होती किस्मत सोई 

सागर से मोती चुन लाने को, गहरा जाना पड़ता है 
भय से जो तट पर बैठ रहा, उसने सदा हताशा ढोई 

भावभरा उत्साह परिश्रम और कुदाली जिसके साथी "श्री "
उसने चढ़ पर्वत के शिखरों पर, फूलों की फसलें बोई 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
आटे के दो मटके

पौ फटने से घंटों पहले  माँ सोकर उठ जाती थी
आटा पीस हाथ चक्की से, मटके भरती जाती थी 
मटके संग्रह के साधन जिनमें खाद्यान भरे जाते थे 
एक दूसरे के ऊपर रख, पंक्ति बद्ध सजते जाते थे 

घर में माँ की सासू थी जो अपना राज्य चलाती थीं   
थीं तो सौम्य सरल लेकिन माँ से यों ही अनखातीं थीं 
इक समय माँ  ज्वर से पीड़ित काँप रही थी थर थर थर 
खुद ही कुछ औषधि लेकर जा लुढ़क रही कमरे के अन्दर  

बाबा  बाहर से घर आये बोले क्यों खाना बना नहीं अब तक 
दादी बोली कैसे बनता आटा न रहा चुटकी भर जब तक 
ज्वर से उबल रही माँ अन्दर, सब कुछ सुनती जाती थी 
बेबस थी, क्या कैसे उत्तर दे साहस नहीं जुटा पाती थी   

कुछ क्षण तो माहौल शांत था फिर भूकम्पी झटके थे 
आटे से भरे हुए मटके दो ला, माँ ने आँगन में पटके थे 
दादी जी चुप चाप खड़ी  थीं बोल हलक में अटके थे 
बाबा जी गर्दन नीची कर  चुपके  से बाहर सटके थे 

चौदह वर्षीय उम्र में जो बालिका बधू बन  आई थी   
अदम्य साहस की प्रतिमा थी रोम रोम सच्चाई थी  
माँ ने हमें सिखाया बेटा दिया काम जमकर  करना 
पर कोई असत्य बोले तो मटके फोड़ सामने धरना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
५० वर्ष पूर्व 
स्थान कंधेसी पचार 
दादी/अइया 

मेरी एक दादी थीं जो चुपचाप रहतीं थीं i
ग़लती कोई भी करे डाट वह सह्तीं थीं ii

एक दिन वह अपना दायित्व भूलीं ीं i
गले में फंदा डाल छत से झूलीं ीं ii

पर एक बात मेरे छोटे से दिमाग ें अटकी थी i
दादी के पैर तो जमीन पर थे फिर कैसे लटकीं थीं ii

बड़ी देर से मुश्किल यह सोच पाया था i
उनके पति ने ही उन्हें मार कर टकाया  था ii

गाँव के भूरे  भंगी ने अपना धैर्य छोडा था I
जेठ की दुपहरी में नंगे पैरों  थाने दौड़ा था ii

आयी थी पुलिस पर समाज ने सहानभूति दिखाई  थी i
पुलिस को पैसे दे दादी की अर्थी जलवाई थी ii

यदि समाज ने विवेक से काम लिया होता I
उस उजियारे शुक्ल को काली कोठरी में दिया होता ii

तो समाज में   नारी की  स्थिती   कुछ और होती  I
हवेली टोला की चाचीब्रिज की िशोरीभटेले की बहिनदिनेश की दुल्हिन
फैनी की बेटी आज घर होती II

श्रीप्रकाश शुक्ल
दिल्ली २३ मई १९८५  
होली अपने देश की 

अमरीका के चार नागरिक भारत में आ पंहुचे आज 
देख नज़ारा रंग विरंगी लगे कोसने अपने भाग 
बोले अरे यहाँ पर तो हर कोई अपना लगता है 
रंग किसी के ऊपर फेंको हंस कर स्वागत करता है

तब तक एक बालिका ने भरी बाल्टी पानी लेकर 
उन चारों  के ऊपर फेंका लगे नाचने रंग धोकर 
ऐसी मस्ती की तो नहीं कल्पना की जा सकती थी 
आत्मीयता अनजानों से बिन छुए कहाँ रह सकती थी 

भारत मात्र देश ऐसा त्यौहार जहाँ ह्र्द्यों को जोड़ें 
सारे शिकवे गिला भुला वैमनस्य आपस का तोड़ें 
सारे मानव एक रंग में रंग कर त्यौहार मानते हैं 
अल्ला ईश्वर साईं ईशा सम भाव से पूजे जाते हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल