Tuesday 31 December 2013

रूप अपना देखा करती है

नर नारी के प्रणय पाश में रही युगों से रीति यही  
एकाधिकार की चाहत हर नारी मन में रहती है 
नर भी यदि संयम साध निभा पाये जो नारी वृत 
तो फिर जीवन नदिया कल कल स्वर भर बहती है 

गोपियाँ जभी यमुना सरि पर जल भरने जातीं, 
राधा नित तट पर बैठ रूप अपना देखा करती है 
सोचा करती है जब मैं इतनी रूपवान हूँ सुंदर हूँ 
क्यों कान्हां की दृष्टि मेरी सखियों पर पड़ती है  

राधा को चिंतित देख स्वयं कान्हां ने कहा सुनो राधे,
ऐसा संशय व्यर्थ पाल क्यों मन में दुःख भरती हो  
हम सब से, सब हमसे, रखते अनुराग एक सा ही 
एक तुम्ही हो, जाने क्यों स्नेह अपरिमित करती हो 

हम आये हैं इस धरती पर ये भी पाठ सिखाने जग को 
प्रेम,  कामना रहित रहे  यदि, खूब  फूलता फलता है  
जीवन अभिरम्य रंगशाला बन नाना रूप अंक भर लेता 
अनुरक्ति कलित पथ पर, जीवन रथ सज कर चलता है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
रूप अपना देखा करती है

    बेटी सर्वोत्तम कृति विधि की कारुण्य,दया,ममता धारे 
  मूर्ति प्रेम की, ढ़ेरी साहस की, रूप अनेकों सहज संभारे   
  बेटी विकास है माँ जननी का, बेटी भाई की सबल बांह 
  बेटी कौमुदी पिता श्री की, जो देता शीतल बट की छाँह   
  
  बेटी ऐसी कृति,माँ जिसमें सदा रूप अपना देखा करती है   
  बेटी ऐसी कृति,माँ जिसमें निज स्वप्न संजोये धरती है   
  बेटी ऐसी कृति,माँ जिसमें अपनी,साँसें संभाल रखती है  
  बेटी ऐसी कृति,माँ जिसमें,जग का सारा दुलार भरती है  

  बिन बेटी के माँ, बिना माँ के बेटी,सदा अधूरी रहती है   
  बेटी की घर से विदा सदा हर माँ की मजबूरी रहती है 
  माँ की आकांक्षायें आत्मसात कर बेटी फलीभूत करती है   
  बेटी माँ के सुखदा आँचल में जीवन भर खुशियां भरती है   
   
    श्रीप्रकाश शुक्ल 

Monday 16 December 2013

आज अचानक सूनी- सी संध्या में

आज अचानक सूनी- सी संध्या में, आकर कोई कहता है  
क्यों उदास आकुल बैठा तू, खोया सा क्यों रहता है  
कोई नहीं दिखा धरती पर जिसने वियोग का दुःख न पाया   
जिसने अतीत की सुधियों में,खोकर अपना मन ना दुखाया  

हो सकता ये सत्य कथन हो, पर भूलूं कैसे वो घड़ियाँ  
सुख की सौगातों सी थीं जब अधरों से झरती फुलझड़ियाँ  
कितने राग भरे पल थे वो, थीं कितनी मृदुल मुलाकातें 
कितने मीठे से सपने थे, कितनीं प्यारी मन हर बातें  

वो आँचल का छोर कि जिसमें, तुमने आँसू छलकाये थे   
वो अपना संसार कि जिस पर,  हम दोनों  इतराये थे  
सहमे पद चाप भरीं गलियां वो नहीं भुलायी जातीं हैं  
सांझे जो गुजरी साथ साथ, सोये अरमान जगातीं है 

अब तो केवल यही शेष है, जब भी मचले पीर ह्रदय की  
तोड़ कल्पना की सीमायें, रचूँ अल्पना मधुर प्रणय की  
जब अनुभूति विकल हो इतनी, सूना सब संसार लगे  
गीत व्यथा के हंस हंस गाऊं,शायद चित उल्लास जगे   

  श्रीप्रकाश शुक्ल 


आज अचानक सूनी-सी संध्या में

आज अचानक सूनी-सी संध्या में, यों खयाल आया मन में  
जो अपने थे दूर हुए क्यों, पतझर सा  छागया चमन में  

हम रोज देखते हैं चंदा से होते दूर सितारे नभ में   
पर नहीं छोड़ते साथ सितारे, जब भी चंदा फंसे ग्रहन में   

जिन कोमल पत्तों को हमने, पाला था पलकों में ढककर 
छोड़ स्वजन, किस सुख की खातिर, लिप्त हुए वो धन अर्जन में 

सम्भव नहीं भुला पायें वो, थके हुए जर्जर खम्बों को 
जिनकी महज़ छुवन काफी थी, उर में उठते दर्द दमन में 

अब तो उचित यही है " श्री "खुद को  ही दोषी मानें हम    
कैसे हम अनविज्ञ  रहे, क्या  होते परिणाम प्रलोभन में       

श्रीप्रकाश शुक्ल 

मेरा तो स्पर्श मात्र है 

मेरे सपनों  की  दुनियां में  
तुम अब भी आ ही जाती हो 
छूकर मुझको बार बार  
सोये अहसास जगाती  हो 

कहती, मेरा तो स्पर्श मात्र है 
फिर क्यूँ बढ़ जाती है सिहरन  ?
नच उठता मन मयूर उन्मादित  
जैसे  घिर आया पागलपन 

मन.आकुल हो जाता चिंतित, 
कैसे तुमको बहुल प्रेम दे 
जीवन के सारे सुख साधन 
लाकर आँचल में उड़ेल दे   

मेरा तो बस स्पर्श मात्र है 
यदि हाँ, तो क्यों ऐसा कंपन ?
श्वासों का प्रवाह हो गतिमय 
संयम क्यों खो देता तन मन 

उर्जस्वित हो जाता रोम रोम 
चाहे, उड़कर नभ को छू लूं 
हृद सागर तेरे नेह भरा जो, 
भर एक घूँट ,सारा पी लूं 

मुझको तेरा स्पर्श, एक 
अद्भुत मणि सा लगता है 
जो तन के हर अवयव को 
उद्वेलित कर, मद भरता है 

रूह विकल होती मिलने को 
बेताबी तड़पन में ढलती 
रीते मन की  बेज़ारी में   
रात मदभरी नहीं संभलती  

सच पूछो स्पर्श तेरे ये 
रतिवर के ही पुष्पवाण हैं  
बड़वा सी आवेशित करते
जलते जिसमें मेरे प्राण हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
मेरा तो स्पर्श मात्र है

मेरा तो स्पर्श मात्र है, जो करता प्रभु ही करता 
सारे जग का मालिक वो है, वही है करता धरता   

जिसकी भृकुटि विलास सृष्टि का लय कर देती 
सुन भक्तों की टेर दौड़ कर आता, दुःख हरता  

 तू  माने या ना माने, उसको तो सब ही प्रिय हैं 
सबका खैर ख्वाह मौला वो,अल्ला,यीशु, भरता  

नहीं किसी के पाप पुण्य से उसको लेना देना 
डूबा रहे ज्ञान जब तम में मति भ्रम से मन मरता   

जो अपने कर्मों की "श्री" पतवार संभाले रहता खुद  
जीवन नौका खे कर अपनी हंस हंस पार उतरता 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Sunday 15 December 2013

बाद दीपावली के दिये ये बुझे 

श्री राम लौटे ,खुशियां बटीं, दिन चार तक ही ये दीपक पुजे  
सीता को घर से निकाला गया, बाद  दीपावली के दिए ये बुझे  
सदियों से अनुभव यही तो रहा, सुख दुःख का मौसम बदलता रहा  
हालात का दास मानव रहा, जैसा ढाला गया, वैसा ढलता  रहा 

उद्धरण और भी हैं अनेकों भरे, इस युग में यही तो प्रमुख रीति है 
जब तक न हो स्वार्थ की पूर्ती, झूठी ओछी  मुखोटे भरी प्रीति  है  
गड़ी फांस निकले या माला पड़े , बाद उसके बदलते रंग ढंग दिखे 
जो सम्बन्ध ऊंचे महल से लगे, रेत की नींव पर सब ही पाये टिके  

जैसी हैं हम प्रजा, वैसा राजा मिले, सियासत का भी अब बुरा हाल है  
थोथे वादों, प्रलोभन से झोली भरें, छल कपट से भरी पूरी हर चाल है 
लोग गफ़लत में हैं, आयेगे दिन ख़ुशी के, दीपावली से भरी रात होगी 
सुख चैन से सब का गुज़रेगा जीवन, सद्भाव की सबको सौगात होगी 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
(२)

बाद दीपावली के दिए ये बुझे

जल गए दीप इक बार जो प्रेम के, ध्यान रक्खें कभी ज्योति घटने न पाये 
कितनीं भी हों आंधियां दुर्विजित, दीप की हर शिखा नूर भर जगमगाये     
प्रगति पथ  पै  बढ़ते कदम देखकर, दुश्मनों के ह्रदय तो अकारण जलें 
वो तो चाहें यही और मनाते भी हैं, बाद दीपावली के दिए ये बुझें  

सदियां गयीं  व्यर्थ लड़ते लड़ाते, बात ये अब  सभी के समझ  आ गयी  
मिल के रहने के परिणाम होते सुखद, अंतत: नीति अपनी सहज भा गयी   
अर्ज़ छोटा मेरा,पर जगत जानता, ज्ञान विज्ञानं की खान, हैं हम असीमित  
खोज मेरी सदा मानसिकता  निखारे, रक्खी नहीं सौख्य साधन पै सीमित  

ये दीपावली जो कि अब मन रही, इसमें दीपक नहीं जो स्वयं बुझ सके 
इनमें ज्योति जले चंचला की सतत, जिसको कोई भी मारुत बुझा न सके  
ज्योति ऐसी ही जग में जलाएंगे हम, भावना अविहित कोई दिल में न आये 
बाद दीपावली के दिए ये बुझे, खयाल ऐसी कभी कोई पलने न पाये   


श्रीप्रकाश शुक्ल 

(३)
बाद दीपावली के दिए ये बुझे 

आयी दीपावली दीप घर घर जले  
दीप जलते हुए कितने लगते भले  

सोचो समझो सभी काम अच्छे करो 
दीप दे ना धुंआ, दूसरों को खले 

बाद दीपावली के दिए ये बुझे  
बात कुछ तो हुयी जो गए थे छले  

जो आज उठता गरजता दिखे 
अधबुझा सा रहे ,जोश निश्चित ढले 

सृजन काव्य "श्री" कोई दुष्कर नहीं 
चोखी संवेदना जो ह्रदय में पले 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल  
(४)

बाद दीपावली के दिये ये बुझे 

बाद दीपावली के दिए ये बुझे, रातरानी सिमट कर के मुरझा गयी 
चंहु ओर घर में धुंआ भर गया, सारे अम्बर में काली घटा छा गयी 
पडोसी ने ना पाक चालें चलीं, घुसपैठिये भेज सड़कों पै बम रख दिये 
मौज मस्ती मनाते वो नादान बालक,प्रियजन हमारे जुदा कर दिए 

जगाया जो सोते हुए सिंह को, ठीक लें वो समझ, खैरियत  अब नहीं  
उनके घर में ही घुस हाल पूछेगे हम,मुंह छुपाने को पाएं न कोना कहीं 
धैर्य धारण की होती है सीमा कोई, ऐसी सीमा सभी पार हम कर चुके  
पाठ अब मित्रता का पढ़ाना पड़ेगा, ये शालीनता थी जो अब तक रुके 

था चाहा यही वो मनायें दीवाली, दिये जिसके घर घर को रौशन बनायें 
तान रक्खे जहाँ तार काँटों भरे, वहाँ  पंक्ति दीपों की मिल कर सजायें 
मिलन ईद और जश्न दीपावली का,खुले दिल से यदि साथ में मन सके  
चाहे अम्बर में कितने  ही तूफां उठें, दीप  दीपावली  का  कोई  ना बुझे   

श्रीप्रकाश शुक्ल 
(५)
बाद दीपावली के दिए ये बुझे 

आयी दीपावली झूम उट्ठे सभी,  हर्ष उल्लास की कोई सीमा नहीं 
एक दूजे से मिल प्रतिनन्दन करें, अनबन की चहरे पै रेखा नहीं  
सब की दुआ भाई चारा रहे सब सलामत रहें सभी फूलें फलें 
कोई अकेला क्यों कर जले, हो जलना तो साथ मिलकर जलें 

चाहते सब यही ये नज़ारे ये खुशियां हमेशा हमेशा को ठहर जायें 
प्रेम के पुष्प जो आज मन में खिले, खिलते रहें, मुरझा न पायें 
अमावस भी जीवन की ऐसी रहे जिसमें चमक पूर्णिमा जैसी हो 
दीप दीपावली के कभी न बुझें चाह तूफानों की चाहे कैसी भी हो 

बाद दीपावली के दिए ये बुझे, क्यों बुझे, सोचना अब ज़रूरी हुआ   
क्यों सूखी रही वर्तिका प्रेम की,या सद्भाव का तेल कम क्यों हुआ 
हवायें चलीं घर में विंध्याचली या पश्चिम से आया भयंकर तूफां 
कारण रहा चाहे कोई भी हो हमें रहना सजग जिसको जाने जहाँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल