Wednesday 9 November 2016

प्राण दीप मेरा जलता है 

अंधकार के बादल जग में आज गहनतम घिरे हुए हैं 
सारी जगती पर कहर देख भय से प्राणी डरे हुए हैं  
दिखता नहीं कन्हैया कोई जो गीता संचार कर सके    
दुर्बल प्राणों की नस-नस में चिंगारी जो आज भर सके 

हैरत में हूँ, निर्दोष मार करआतंकी को क्या मिलता है 
ऐसी जघन्य घटनाएं सुनकर प्राण दीप मेरा जलता है 
सभी विज्ञ, ऐसे कुकृत्य का जग हित में कोई अर्थ नहीं 
चाहें तो इसे रोक सकते हैं इतने भी  तो असमर्थ नहीं  

आज मनुजता पीड़ित है आसुरी वृत्तियाँ प्रखर हो रहीं 
शिष्ट संस्कारों केअभाव में कोमल तत्वअबाध खो रहीं 
आवश्यक है शैशव से ही ऐसी शिक्षा अनवरत मिले 
साथ साथ मिल रहने की भावना सदा ही ह्रदय पले 

श्रीप्रकाश शुक्ल  
अंधकार के क्षण जल जाते 
भौतिकता के बढ़ते प्रभाव में 
कोमल तत्व विलीन हो रहे ।                            
हम खुद ही अपनी राहों में 
कंकड़ पत्थर के बीज बो रहे ॥ 
दुःख अप्रियता और विरोध के 
लगा रहे हम बृक्ष कटीले । 
गहरी खायी खोद रखी है 
उगा रखे तंगदस्ती टीले ॥ 
मानवता को भूल आज 
दे रहे साथ जो अनाचार का । 
बुद्धिहीन असहाय सरल  हैं 
बोझा लादे कुत्सित विचार का ॥  
मानवता से विरत व्यक्ति 
कल्याण मार्ग क्या चल पाएगा ।  
क्षमा,सत्यता ,धीरज तजकर 
पशु समान ही रह जाएगा ॥ 
जो हम तिमिराच्छादित अंतस में
 स्नेह शांति के दीप जलाते । 
जीवन आँगन प्रकाशमय होता,
 अंधकार के क्षण जल जाते ॥ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

  
कभी चल दिए साथ 

कभी चल दिए साथ सत्य के, अडिग रहे अपने वचनों पर 
भारत भू की मिटटी के  तरुवर, कण कण  टूटे झुके न पर 
देख चूका हूँ सारी दुनियाँ, और पढ़े इतिहास सभी 
भारत  जैसे धर्म समर्थक, दिखे न हमको कहीं कभी 

हरिश्चन्द्र, बलि की गाथाएं, राधेय, पितामह के वो प्रण 
वचन बद्धता के संरक्षण में, करते रहे सभी कुछ अर्पण
परिपाटी हम वही निभाते चले आरहे हैं इस युग में 
उनको देते नदियों का पानी जो दहशत फैलाते मेरे घर में 

हमने संकल्प लिया जग हित का निंदनीय कुछ भी न करेगे 
पर विषदंतक के दांत खींच उसको अवश्य विषहीन करेंगे 
कैसी बिडम्बना है, इस युग में सभी स्वार्थ में इतने रत हैं 
मुंह ढककर सोये है यदयपि ,भावी विनाश से अवगत हैं 

 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

Sunday 18 September 2016

किसी अधर पर नहीं

हम स्वतंत्र भारत के वासी अपना भाग्य स्वयं लिखते हैं 
फिर क्यों  द्वेष घृणा के पौधे हर घर में पलते दिखते हैं 
जैसे जैसे हम बड़े हुए, साथी सद्भाव साथ छोड़ता गया 
माल्यार्पण सुख का लालच उजले सम्बन्ध तोड़ता गया 

अपनत्व भरे सुखमय अतीत की यादें मन में वाकी हैं 
चारो ओर भीड़ उमड़ी है फिर भी जीवन एकाकी है  
किसी अधर पर नहीं दिखी,चिंता मुक्त हंसी अब तक 
अवसादों के सागर में डूबा,गुजरेगा ये जीवन कब तक 

जीवन का अपना अर्थ न होता, अर्थ डालना होता है 
जीवन तो मात्र एक अवसर है, खुद संभालना होता है 
सांसों को नयी सृजनता दो, व्यर्थ न यों बरबाद करो 
नाचो गाओ, गीत रचो, खुद को खोजो, प्रभु ध्यान धरो 

 श्रीप्रकाश शुक्ल 
कहना होगा तुम हो पत्थर 

जिस धरती पर जन्म लिया ,जिसने तुमको पाला पोषा 
जिस समाज ने भूखे रहकर तुमको पोषक भोज्य परोसा 
जिस संस्थान ने सिंहासन पर तुम्हें बिठाया गोद उठाकर 
आज उन्हीं को तोड़ रहे हो कुँवर कन्हईया नाम लजाकर 

कैसे मुंह से निकल सका आज़ादी लेंगे अपनों से लड़कर  
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो कहना होगा तुम हो पत्थर 

पता नहीं क्या धर्म तुम्हारा कौन तुम्हारा परबरदिग़ार 
क्यों घृणा उसे मानवता से क्यों भाता उसको नरसंहार 
कहते हो जन्नत देगा यदि आतंकित कर, दो बलि हज़ार 
बिन कारण उद्देश्य बिना ही ,त्रसित कर रखा घर संसार 

कितने निबोध मारे हैं तुमने क्या भरा नहीं रब का खप्पर 
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो, कहना होगा तुम हो पत्थर 

सत्ता से  प्रतिकारों  में भी, रणनीति तुम्हारी दिल दहलाती 
बंकर में रख अबोध शिशुओं को रक्त पिपासा नहीं अघाती 
लगता है मन में ठान लिया क़ायम रक्खोगे इस प्रकरण को
जब तक न रुधिर से रंजित कर दो पूर्ण धरा के कण कण को 

दुनियाँ सारी देख रही, तुम किस फ़ितरत से रचते  मंजर 
इंसान नहीं असुरों से निकृष्ट हो कहना होगा तुम हो पत्थर

श्रीप्रकाश शुक्ल 
किसके किसके नाम 

इस लंबी डगर उम्र में संचित , जीवन की सच्चाई है 
कितने साथी साथ चले कितनों ने नज़र चुरायी है 
बचपन में जो मित्र मिले सब दिलोजान से मिलते थे  
एक बार जब साथ हो लिए फिर पाला न बदलते थे 

दुष्कर राह जवानी की थी जो भी टकराया बुरा भला   
किसके किसके नाम गिनाऊँ स्वार्थ हेतु जिसने न छला 
द्वेष, ईर्षा, अनर्थभाव ने अंतस छलनी कर रक्खा था 
भावना प्रेम की  पल न सकी, तम इतना भर रक्खा था 

पहुँच गए चौथी सीढ़ी अब, देखें मुड़कर पीछे तो क्या देखें   
फिक्र तजें चिड़िया जैसे पंख छोड़ती फड़काकर अपने डैने  
जीवन घटता तिल तिल जलकर, पर इसका औचित्य नहीं  
मन की कोई उम्र न होती, क्यों लेख हार का लिखें कहीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
मेघों के कन्धों पर चढ़कर 

मेघों के कन्धों पर चढ़कर 
कितने ढीठ होगये पुष्कर 
खेत जोहते बाट रात दिन  
प्यासी धरा तड़पती तुम बिन 
नदी सरोवर ताल तलइयां तुम बिन सब बेजान हो रहे  
जीव जंतु पशु पक्षी सारे  जीवन के अरमान खो रहे  

स्तुति कर तुम्हें बुलाते है हम 
आरति कर तुम्हें रिझाते है हम 
सुनी अनसुनी कर देते हो 
धैर्य परीक्षा क्यों लेते हो 
मनुहार हमारी सुनकर तुम आते हो, जीवन देते हो 
पर अक्सर अनखाये से सुख कम, गम ज्यादा देते हो 

बहुधा निर्ममता से तोड़ो मर्यादा 
सुखदायक कम, विध्वंसक ज्यादा  
कहर ढहाते, भय फैलाते 
नगरी , गाँव बहा ले जाते 
कोई वतन नहीं  छुटता है, जहाँ तबाही न मचती हो
युक्तियाँ  तितर वितर होती हैं शायद ही कोई बचती हो



पर यह भी सच है, जब तुम आते हो
संयोगी, बिरही मन में मादकता भर जाते हो
धरती की तपन बुझा, ठंडक पंहुचाते हो
रिमझिम की तालों पर मन मयूर नचा जाते हो 


आओ तुम अवश्य आओ, प्यासेे मन की क्लांति हरो
वसुधा पर हरीतिमा बिखेर घर घर में धन धान्य भरो

श्रीप्रकाश शुक्ल 
हर कविता के कुछ अक्षर 

गीत लिखे हमने किसान के बारिश देख हुआ जो पागल
वनकर भूत जुटा बोने वो मक्का ,ज्वार ,बाजरा, चावल
इंद्र देव की  भ्रूकुटि कुटिल  थी रहा बरसता पानी झरझर
ज्वार,बाजरा तहस नहस थे सह न सके निग्रह ये दुष्कर 

सागर की उठती लहरें लख नाविक का मन झूम गय़ा
सोचा थोड़ा गहरे जाऊँ फिर ऐसा समय मिलेगा क्या ?
जाल विछाया भीतर जाकर तब तक शशिधर रूठ गये
तूफान उठाया ऐसा भीषण किश्ती नाविक सब डूब गयेे

जीवन की हरेक डगर में मिलीं अनेकों अवघट राहें 
रागों के स्वर संवर न पाये अस्फुट ही रहीं भावनाएं 
जब भी लिखे गीत खुशियों के दुख के कांटे पड़े उभर 
भूखे प्यासे दिखे बिलखते हर कविता के कुछ अक्षर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
किरणें जिसके द्वार न आईं

सबके विकास और साथ हेतु नव विकल्प चुनना होगा
किरणें जिसके द्वार न आई उसे साथ ले चलना होगा  

सत्ता के गलियारो में भी सोच आज इक नयी पल रही
जो निरास हैं जगा उन्हें इक नई चेतना भरना होगा

उद्धोगपति, सम्पन्नों से भौतिक विकास 
तो हो सकता हैं
लेकिन मानसिक विकास हेतु सस्कारों को गढ़ना होगा

सुख साधन से अतिशय लगाव मानव मन की दुर्बलता है
आसुरी प्रवित्तियों से निजात को संघर्षों से लड़ना होगा 

यद्यपि ये लक्ष्य कठिन है पर जग में होता कुछ न असम्भव
मन में भर  विश्वास अटल "श्री "संकल्पित हो बढ़ना होगा 

श्रीप्रकाश शुक्ल
हमारे पास भी 

है तुम्हारे पास जो कुछ, जिसका तुम्हें अभिमान है 
वो हमारे पास भी समुचित, इतना मुझे भी भान है  

मेरे मौन, धीरज को, मेरी तनुता समझना भूल है 
कहना मुझे असहाय अबला नारी जाति का अपमान है 

पांच तत्वों से बनी इस सृष्टि का नारी ही छटवां तत्व है
जिसका संरक्षण, जनन में अनुपमित अनुदान है 

बहुतेरी परीक्षा दे चुकी, अब और आशा व्यर्थ "श्री "
दे दो उसे अधिकार उसका, जिसका उसे स्नज्ञान है  

बदल डालो मानसिकता, कलुषता जिसमें समाहित 
नारीत्व का नेतृत्व ही, सुविकसित देश की पहचान है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Monday 25 July 2016

तीर लगता आज सूना

तीर लगता आज सूना, नाविक सभी अस्फुट भ्रमित 
किस ओर पंहुचेगी ये नौका देश की  स्थिति अनिश्चित 
सुमधुर फलों की कामना क्या 
पूरित कभी हो पायेगी । 

नीतियाँ  उपयुक्त हैं  पर अमल उनपर हो न पाया  
अंकुरित होने से पहले झेलतीं प्रालेय साया 
एकता की भावना जन जन में क्या 
कोशिश बिना उग पायेगी । 

छल कपट का साथ लेकर चाहते सब  कामयाबी 
अबोध का धन लूटने में  दिखती नहीं कोई खराबी 
ये आज के  युग की सचाई 
क्या कभी मिट पायेगी । 

हाँ ये संभव है अगर हम निरपेक्ष हो जग को निहारें 
आसुरी वृतियाँ  कुचल दैवीय वृत्तियों को निखारें 
हों स्वार्थ तज पर हित समर्पित 
तो साधना बेशक असर दिखलाएगी ।   

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Sunday 29 May 2016

ढूंढती मुस्कान मेरी
प्रातः से संध्या समय तक भार ओढ़े व्यस्तता का
बीतता जाता समय नित भाव भरता विफलता का 
सब कार्य तो चल ही रहे हैं  पर न दिखता चाहिए जो 
अनुभूति सच्ची निगल जाता बोध इक परपंचता का 
ढूंढती मुस्कान मेरी घर की हर दीवार कोना और वीथी 
पर मैं उसको कैसे ओढूँ, जब भाव  उर में सहृदयता का 
मैं जानती अच्छी तरह नैराश्य के ये भाव चिंता जनक हैं  
और बोध है कि  भूल है फल भोगना  भवितव्यतता का 
संकल्प ले निज लक्ष्य का और कर्तव्य पथ पर अडिग रहना 
अनुभूति सुख की संजो रखना, सद्मार्ग है "श्री" सफलता का 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
ढूंढती मुस्कान मेरी, नयन भर ममता का सागर 
माँ तू विस्मयजनक रचना, धन्य हूँ मैं तुझे पाकर 
माँ तू विधि की अवतरित प्रतिमा, माँ तू मेरी जान है 
भेजा गया तुझको धरिण पर, संरक्षिका मेरी बनाकर 
मेरे चेहरे की उदासी , बहते तेरे आँसू बताते 
जब भी पूछा हाल तेरा,हँसती रही  तू सच छुपाकर 
कब तक तलक रक्खेगी मां तू मुझको कंधे से लगा ?
ले जाता नहीं जब तलक तू, अपने कंधे पर उठाकर
जैसे लड़ती एक चिड़िया, पृथुल, लिप्तक व्याल से "श्री"
वैसे ही तू व्याधियों से झगड़, रखती रही मुझको बचाकर
  
श्रीप्रकाश शुक्ल 
अश्रु बहाने से न कभी

अश्रु बहाने से न कभी, बिगड़े हालात सुधरते हैं 
जो हरदम झूठ बोलते हैं, वो फिर कहाँ सुधरते हैं 

सत्यता सिद्ध करने पर भी, सुनने को तैयार नहीं  
ऐसे नापाक पडोसी हैं, तो बात ही हम क्यों करते हैं 
 
आतंकी घुसने का इल्जाम फरेबी कहते हैं, नहीं पता
भारत के वीरों के हाथों, निर्दोषी कभी नहीं मरते हैं 

शांति, प्रगति एवं समृद्धि, साझा दृढ़ लक्ष्य हमारा है  
इसको हासिल करके रहेंगे, हम पूरा पूरा दम भरते हैं 
 
कदम उठ चुके आगे जो, वो कभी न पीछे लौटेंगे "श्री" 
जो साहस बटोर भिड़ते हैं वो, नामुमकिन मुमकिन करते हैं    
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
अश्रु बहाने से न कभी

अश्रु बहाने से न कभी, अपनी मंजिल पा सका कोई  
नैराश्य ओढ़ जो बैठ गया उसकी नियति सदा रोई 

नवग्रहों के अवगुंठन से, बाँध रखा जिसने अपना कल 
अकर्मण्यता के बस हो उसने, अपनी सही डगर खोई 

वाम परिस्थिति झुकी सदा, संकल्पों की परिणति से  
सूझ बूझ और कर्मठता से, पुष्पित होती किस्मत सोई 

सागर से मोती चुन लाने को, गहरा जाना पड़ता है 
भय से जो तट पर बैठ रहा, उसने सदा हताशा ढोई 

भावभरा उत्साह परिश्रम और कुदाली जिसके साथी "श्री "
उसने चढ़ पर्वत के शिखरों पर, फूलों की फसलें बोई 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
आटे के दो मटके

पौ फटने से घंटों पहले  माँ सोकर उठ जाती थी
आटा पीस हाथ चक्की से, मटके भरती जाती थी 
मटके संग्रह के साधन जिनमें खाद्यान भरे जाते थे 
एक दूसरे के ऊपर रख, पंक्ति बद्ध सजते जाते थे 

घर में माँ की सासू थी जो अपना राज्य चलाती थीं   
थीं तो सौम्य सरल लेकिन माँ से यों ही अनखातीं थीं 
इक समय माँ  ज्वर से पीड़ित काँप रही थी थर थर थर 
खुद ही कुछ औषधि लेकर जा लुढ़क रही कमरे के अन्दर  

बाबा  बाहर से घर आये बोले क्यों खाना बना नहीं अब तक 
दादी बोली कैसे बनता आटा न रहा चुटकी भर जब तक 
ज्वर से उबल रही माँ अन्दर, सब कुछ सुनती जाती थी 
बेबस थी, क्या कैसे उत्तर दे साहस नहीं जुटा पाती थी   

कुछ क्षण तो माहौल शांत था फिर भूकम्पी झटके थे 
आटे से भरे हुए मटके दो ला, माँ ने आँगन में पटके थे 
दादी जी चुप चाप खड़ी  थीं बोल हलक में अटके थे 
बाबा जी गर्दन नीची कर  चुपके  से बाहर सटके थे 

चौदह वर्षीय उम्र में जो बालिका बधू बन  आई थी   
अदम्य साहस की प्रतिमा थी रोम रोम सच्चाई थी  
माँ ने हमें सिखाया बेटा दिया काम जमकर  करना 
पर कोई असत्य बोले तो मटके फोड़ सामने धरना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
५० वर्ष पूर्व 
स्थान कंधेसी पचार 
दादी/अइया 

मेरी एक दादी थीं जो चुपचाप रहतीं थीं i
ग़लती कोई भी करे डाट वह सह्तीं थीं ii

एक दिन वह अपना दायित्व भूलीं ीं i
गले में फंदा डाल छत से झूलीं ीं ii

पर एक बात मेरे छोटे से दिमाग ें अटकी थी i
दादी के पैर तो जमीन पर थे फिर कैसे लटकीं थीं ii

बड़ी देर से मुश्किल यह सोच पाया था i
उनके पति ने ही उन्हें मार कर टकाया  था ii

गाँव के भूरे  भंगी ने अपना धैर्य छोडा था I
जेठ की दुपहरी में नंगे पैरों  थाने दौड़ा था ii

आयी थी पुलिस पर समाज ने सहानभूति दिखाई  थी i
पुलिस को पैसे दे दादी की अर्थी जलवाई थी ii

यदि समाज ने विवेक से काम लिया होता I
उस उजियारे शुक्ल को काली कोठरी में दिया होता ii

तो समाज में   नारी की  स्थिती   कुछ और होती  I
हवेली टोला की चाचीब्रिज की िशोरीभटेले की बहिनदिनेश की दुल्हिन
फैनी की बेटी आज घर होती II

श्रीप्रकाश शुक्ल
दिल्ली २३ मई १९८५  
होली अपने देश की 

अमरीका के चार नागरिक भारत में आ पंहुचे आज 
देख नज़ारा रंग विरंगी लगे कोसने अपने भाग 
बोले अरे यहाँ पर तो हर कोई अपना लगता है 
रंग किसी के ऊपर फेंको हंस कर स्वागत करता है

तब तक एक बालिका ने भरी बाल्टी पानी लेकर 
उन चारों  के ऊपर फेंका लगे नाचने रंग धोकर 
ऐसी मस्ती की तो नहीं कल्पना की जा सकती थी 
आत्मीयता अनजानों से बिन छुए कहाँ रह सकती थी 

भारत मात्र देश ऐसा त्यौहार जहाँ ह्र्द्यों को जोड़ें 
सारे शिकवे गिला भुला वैमनस्य आपस का तोड़ें 
सारे मानव एक रंग में रंग कर त्यौहार मानते हैं 
अल्ला ईश्वर साईं ईशा सम भाव से पूजे जाते हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Monday 25 April 2016

पाषाण में भी प्राण

सोये हुए क्यों? कवि उठो ! दर्प को दर्पण दिखाओ
नैराश्य ओढ़े भूमि गत जो, हाथ दे उनको उठाओ  
स्वार्थ की संकीर्णता में, इंसानियत जो आज भूले 
झकझोर कर उन पशु सरीखे मानवों में प्राण लाओ 

क्यों धार कुंठित है कलम की वेदना लिखती नहीं 
है कलंकित मानसिकता फिर भी क्यों दिखती नहीं 
देश पर था गर्व जिनको आज क्यों निष्प्राण दिखते 
फूंक दे पाषाण में भी प्राण जो, संवेदना ऐसी जगाओ 

है देश में भीषण परिस्थिति, आज तरुणाई भ्रमित  
झूठे छलावे में उलझ, समझे न अपना हित अहित 
हो दुखित भूषण औ दिनकर, खीजकर  पैगाम देते   
शब्द शर में गर्जना  भर भ्रान्ति की तुम भित्ति ढाओ 

श्रीप्रकाश शुक्ल