Sunday 29 May 2016

अश्रु बहाने से न कभी

अश्रु बहाने से न कभी, अपनी मंजिल पा सका कोई  
नैराश्य ओढ़ जो बैठ गया उसकी नियति सदा रोई 

नवग्रहों के अवगुंठन से, बाँध रखा जिसने अपना कल 
अकर्मण्यता के बस हो उसने, अपनी सही डगर खोई 

वाम परिस्थिति झुकी सदा, संकल्पों की परिणति से  
सूझ बूझ और कर्मठता से, पुष्पित होती किस्मत सोई 

सागर से मोती चुन लाने को, गहरा जाना पड़ता है 
भय से जो तट पर बैठ रहा, उसने सदा हताशा ढोई 

भावभरा उत्साह परिश्रम और कुदाली जिसके साथी "श्री "
उसने चढ़ पर्वत के शिखरों पर, फूलों की फसलें बोई 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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