Sunday 29 May 2016

आटे के दो मटके

पौ फटने से घंटों पहले  माँ सोकर उठ जाती थी
आटा पीस हाथ चक्की से, मटके भरती जाती थी 
मटके संग्रह के साधन जिनमें खाद्यान भरे जाते थे 
एक दूसरे के ऊपर रख, पंक्ति बद्ध सजते जाते थे 

घर में माँ की सासू थी जो अपना राज्य चलाती थीं   
थीं तो सौम्य सरल लेकिन माँ से यों ही अनखातीं थीं 
इक समय माँ  ज्वर से पीड़ित काँप रही थी थर थर थर 
खुद ही कुछ औषधि लेकर जा लुढ़क रही कमरे के अन्दर  

बाबा  बाहर से घर आये बोले क्यों खाना बना नहीं अब तक 
दादी बोली कैसे बनता आटा न रहा चुटकी भर जब तक 
ज्वर से उबल रही माँ अन्दर, सब कुछ सुनती जाती थी 
बेबस थी, क्या कैसे उत्तर दे साहस नहीं जुटा पाती थी   

कुछ क्षण तो माहौल शांत था फिर भूकम्पी झटके थे 
आटे से भरे हुए मटके दो ला, माँ ने आँगन में पटके थे 
दादी जी चुप चाप खड़ी  थीं बोल हलक में अटके थे 
बाबा जी गर्दन नीची कर  चुपके  से बाहर सटके थे 

चौदह वर्षीय उम्र में जो बालिका बधू बन  आई थी   
अदम्य साहस की प्रतिमा थी रोम रोम सच्चाई थी  
माँ ने हमें सिखाया बेटा दिया काम जमकर  करना 
पर कोई असत्य बोले तो मटके फोड़ सामने धरना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
५० वर्ष पूर्व 
स्थान कंधेसी पचार 

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