Wednesday 14 November 2012


दीप के पर्व पर जब जलें- दीप, ऐसे जलें 

दीप के पर्व पर जब जलें- दीप, ऐसे जलें 
कि हो अड़िग सकल्प,निष्ठा, कलुष तम से जूझ पायें
इरादे, कर गुजरने के कभी दिल में पलें, ऐसे पलें
कि हर साँस की उच्छवास से, अन्याय के दिल काँप जायें 

दीप के पर्व पर जब जलें -दीप, ऐसे जलें 
कि रश्मियाँ उनकी छिटक सारी धरा को जगमगायें  
प्रीति प्रादुर्भाव हो, मन में फलें सुविचार, ऐसे फलें  
शमन हों आक्रोशलिप्सा, छिन्न हों कटु भावनायें  
दीप देता है संदेशा जल सको, तो यों जलो  
निज स्वार्थ, बाती बन जले, परमार्थ घृत बन, लौ बढायें 
और ढलना हो कभी फौलाद में, तो यों ढलो 
लाखों बबंडर सर पे टूटें, तो भी सपने बुझ न  पायें  

दीप पाता है प्रतिष्ठा कर्म से, न कि माप से 
क्यों न हम अनुकरण कर, अस्तित्व की बाजी लगायें 
और जो झुलसे, जले हैं, दीनता के ताप से 
आस की  दे इक किरण, अभिकाम जीने की जगायें  

  श्रीप्रकाश शुक्ल 


सियोना 

शरद पूर्णिमा की प्रातः को
                   छिटक चांदनी भू पर आई  
राहुल अमीशा के आँगन में 
                   धूप गुनगुनी  सी आ छाई  
साईशा  की नन्हीं बाहों में 
                   आ टपका इक सुघढ़ खिलौना 
अन्नू आयुष और माही ने 
                    पायी छुटकी बहिन सियोना 
नाना नानी का खुशियों से 
                   भरा आज दिल का हर कोना 
दादा दादी बाट जोहते 
                    जल्दी  ही मिलने जायेंगे 
जो कुछ अच्छा सीखा अब तक 
                     सभी भेंट कर आयेगें  
                      
दादा -दादी 



Tuesday 6 November 2012

जैसे  हो तस्वीर भीत पर 

मंहगाई उफान लेती, पर अस्मिता आज भी सस्ती है
मेरा देश महान पर यहाँ, चोरों की खासी बसती है

गाँधी जी के तीनो बन्दर बगुला भगत बने बैठे,
खुल्लमखुल्ला बटें रेवडीं,अपनी, अपनों की मस्ती है

सत्ता के गलियारे में, ऐसे बढ़ चढ़ काम हो रहे
जिनका सिर्फ  नाम सुनते,संसद की धरती धंसती है

इंसान  टंगा है बेबस सा  जैसे  हो  तस्वीर भीत पर
उसकी ये बेबसी, बेबजह,  सबको नागिन सी डसती है

सोचा हालात सुधर जायेंगे, धैर्य नहीं छोड़ेगा "श्री"
पर कैसे कोई मुंह सीँ ले, जब जान देश की फंसती है 



श्रीप्रकाश शुक्ल

विजयदशमी विजय पर्व है ,विजयी कौन हुआ है लेकिन

विजयदशमी विजय पर्व है ,विजयी कौन हुआ है लेकिन
  विजय सत्य की हुयी अंततः, साक्षी काल दिवस अनगिन  
     सच है समय समय भारत में, आसुरी प्रवितियाँ उमड़ पडीं 
         तभी महा मानव ने उठकर, कर निदान, नीतियाँ गढ़ीं   
लेकिन तत्व कलुषता के उग, रहे पनपते रक्तबीज से
   मानवता कराह उट्ठी, हो व्यथित, रोज की असह खीज से 
      आज प्रताड़ित, घने धुएँ में, जीते हैं नित मर मर कर
         क्योंकि सत्ता के  साये में, सुख की छांह न पायी क्षण भर

मनमोहन की बंशी अब, बजती नहीं सुनिश्चित सुर में 
   जिसकी अशुद्धि प्रतिध्वनि उठकर, गूँज रहीं सांसद उर में 
      मति भ्रमित, सभी नायक दिखते, निर्णय होते सभी अहितकर 
          या फिर लूट रहे जनगण को, जानबूझ कर ,बल छलकर     


मौन व्यथा जग गयी आज, इक जलधि ज्वार सी 
    हारी बाज़ी पा लेने की होड़ बढ़ी बढवा बयार सी 
       तरुणाई की आँखों में सुख सपनो के अंकुर दिखते
         परिवर्तित 
होगी शीघ्र व्यवस्था,नहीं देर अब दिन फिरते  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

विजयादशमी  विजय  पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन 
 
विजय, दु:राग्रह, दु:साहस की है, मनमानी पर अड़े हुए हैं 
शकुनि से बढ़कर पारंगत, यद्यपि विदेश में पढ़े हुए हैं 
 
 लाखों की चोरी की है पर, लगती चोरी माखन की, 
सैकड़ों, हजारों रोज पचाकर, वंशी माधव बड़े हुए हैं 
 
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन  
रावण जैसे शीश कटे भी, जीवित हो उठ खड़े हुए हैं 
 
संस्कार सब खाक, क्षार हैं, चुल्लू भर पानी में डूबे  
शर्म, हया की बूँद टिके ना, ऐसे चिकने  घड़े हुए हैं
 
साधन एक वही दिखता "श्री,जिसको बापू मना कर गए 
कैसे इन्हें सुधारें हम सब, असमंजस में पड़े हुए हैं 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

कब रह पाया दुःख अनगाया 

पुष्प पंखुरियों  सी म्रदु घड़ियाँ, समय धार में बह जातीं हैं 
शेष न कुछ रहता जीवन में,  केवल सुधियाँ रह जातीं हैं 
सुख-दुःख, अश्रु, हास, आलिंगन, इन सुधियों में रहा समाया 
जब अनुभूति विकल हो रोई, मचला दर्द,  कंठ तक आया 
                                 कब रह पाया दुःख अनगाया 

समबन्ध , प्रकृति, मानव मन का, रहा चिरंतन, गूढ़, सनातन 
समझ सका संकेत न मानव, देती रही प्रकृति जो  निशिदिन 
ऋतु बदली, मानव मन तडफा, विस्मृति सन्देश  उभर आया 
भुला सका न जिसे  कभी मन, शब्दों में बाँध गीत में  लाया  
                                 कब रह पाया दुःख अनगाया 

साँसों में सिमटी पीड़ा,  बरबस आँखों में भर आती है 
सिसकन उमड़ नहीं पातीं,  सहसा गीतों में ढल जाती है 
कितना भी धीरज, संयम हो, ये प्रवाह, मन रोक न पाया 
रह पायी ना मौन भावना,  दर्द ह्रदय का जब गहराया 
                               कब रह पाया दुःख अनगाया 
 
श्रीप्रकाश  शुक्ल 
मुझसे जितना दूर हुए तुम 

मुझसे जितना दूर हुए तुम, उतने  धड़कन के पास आगये 
समय पखेरू जितने  दूर गए,सांसों में उतना तुम समा गए 
नहीं भूल पाया अब तक मैं, मुरझाई सी वो चितवन,
पलकों में जब अश्रु भरे थे, करुणा भरा थका था तन मन,
पुरबा के झोंकों से जब भी, दिखा कोई उड़ता आँचल 
लगा यही तुम लौट दुबारा पास हमारे आ गए
अरी सुमधुरा, हम दोनों की दूरी भी क्या दूरी है  
लेकिन हाँ, तन की नहीं मगर मन की मजबूरी है 
प्रणय चाहता नहीं मिलन, बसा रहे बस चित्र  ह्रदय में
प्राणों की इस अमरबेल को,, केवल इतना ही जरूरी है 
धीरे धीरे बिरह आग में ,सुख स्वप्न सभी जल जाएंगे 
ध्रुव निश्चित है बीते दिन, अब लौट नहीं आ पायेंगे  
किन्तु परिस्थितियों ने जो, असमय तोडा सूत्र मिलन का 
गीत व्यथा के मेरे ये, संभवतः उसे जोड़ लायेंगे 

श्रीप्रकाश शुक्ल