Saturday 15 December 2018

कहो कैसे हो

तात कहो कैसे हो तुम, क्या याद देश की आती है 
जो गलियां छूट गयीं पीछे, क्या उनकी याद सताती है 

बातों से भरा हुआ वो घर, छत से टकराता कोलाहल,.
सच बोलो अब सूने घर की शान्ति किस तरह भाती है 

भीड़ दुकानों, सड़कों की, बे काम निठल्ले लड़कों की,
बैंकों मेंं लगी कतारों की, बोझिल थी पर क्या भूली जाती है

बिना बुलाये घर आये फरमाइस चाय पकौड़ों की,
उनके साथ हुयी संगोष्ठी, क्या सहज ज़हन से जाती है 

कितने भी सुख साधन हों, कितना भी चिन्ता रहित समय,
सच्चाई है "श्री" मन की थकान, मित्र पुरानोंं से जाती है

श्रीप्रकाश शुक्ल

कहो कैसे हो

जब से छोड़ गांव की गलियां, शहर आपको भाया
तब से उदास बैठी हैं सब, जैसे उठा शीष से साया 

देवी की मठिया, ताल तलैय्या, पूछ रहे हैं विह्वल सब 
तात कहो कैसे हो तुम, बिना सबब क्यों हमेंं भुलाया

गाय रभांती दरबाजे पर, सहसा ही रुक जाती है 
अश्रु झलकते हैं आंखों मेंं, जैसे कोई सुधि मेंं आया 

धन्य हुआ था गांव हमारा, जब फौजी अफसर चुने गये तुम 
नाच रहा था बच्चा बच्चा, दिल मेंं था आनन्द समाया।

सेवा काल समाप्त हो गया अब तो घर आ जाओ "श्री"
सारा गांव खुशी से झूमे, तुमनें अपना फर्ज़ निभाया  ।

आंंखें मेरी भी नम होतींं, याद गांव की जब आती है
आत्मीय जनों का साथ छोड़, क्यों भौतिकता मेंं जी भरमाया 

श्रीप्रकाश शुक्ल


फूट पडे पतझर से

फूट पडे पतझर से कोंपल, नव युग दस्तक देता है 
झरने दो पात विसंगति के, नव पल करवट लेता है 

जग मेंं झंझावात अनेकोंं, अनचाहे दुख देते हैं
मन के विकार झर जाने दो, बदलाव प्रेरणा देता है 

जीवन मेंं संघर्ष कभी बेकार नहीं जाता देखा,
कर्मठ नाविक,भंवर फंसी नौका को सकुशल खेता है

झुलस चुके नवयुवक आज के, तप्त हवाओं को सहते, 
पर होंसले अभी तक जिन्दा हैं, निश्चय एक प्रणेता है 

शिशिर समीरण के झोंके तन को मृत प्राय किये जाते  "श्री"
पर यही समय है परिवर्तन का, संकेत शुभ घडी का देता है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल


फूट पडे पतझर से 

फूट पडे पतझर से किसलय सी, मुस्कान तुम्हारी रशके कमर 
इस सूख रहे तरु की काया को क्या 4एक बार छू लेगी आकर

बैसे तो मिलन कली का और भंवर का पतझर में नामुमकिन है,
पर कहते हैं सब संभव है, चाहत जब मचले अकुलाकर

प्रेम कथाएं भर कर मन मेंं कब तक बैठी रहोगी उन्मन, 
उष्ण पवन का झौंका तुमको कर देगा विह्वल इठलाकर

शिशिर शीत में घुलकर जब भी याद तुम्हारी आती है,
भीनी खुशबू अलकों की, प्राणों मेंं भर देती सुख सागर

जीवन का अर्थ निर्रथक "श्री "जब एकाकी चलना हो 
अवसादग्रस्त, पीडादायक, चंचल मन रखता भटकाकर 

श्रीप्रकाश शुक्ल

कितनी बार जलाये

कितनी बार जलाये हमने ब्रम्हरूप दीपक घर मेंं
तिमिर विनाशक, तेज विवर्धक, शान्ति प्रदायक उर मेंं

प्रभु- पूजा, आराधन मेंं दीपक इक आवश्यक अंग है 
बुरी शक्तियों का प्रवेश रहता असफल, दिव्य शक्ति के डर मेंं

दीपक प्रतीक है ज्ञान ज्योति का, प्रेरणा सदा यह देता है 
निष्क्रिय कर लो अज्ञानी तम, पुरुषार्थ शस्त्र लेकर कर मेंं

प्रज्वलित ज्योति फैलाती है, सकारात्मक ऊर्जा चंहुदिश,
कलुष प्रदूषण बह जाता है जैसे बहता खर निर्झर मेंं

हर्षोल्लास के मौके पर भी दीपक इक सार्थक प्रतीक है 
भूतल को करता प्रकाशमय, आभा नव बिखरेता अम्बर में

दीपक मेंं अग्नि देव रहते "श्री" जो धर्मपुत्र कहलाते है 
दीपक से मिलती सभी शक्तियाँ जो हम पाते हैं दिनकर मेंं 

श्रीप्रकाश शुक्ल

कितनी बार जलाये

कितनी बार जलाये हमने ब्रम्हरूप दीपक घर मेंं
तिमिर विनाशक, तेज विवर्धक, शान्ति प्रदायक उर मेंं

प्रभु- पूजा, आराधन मेंं दीपक इक आवश्यक अंग है 
बुरी शक्तियों का प्रवेश रहता असफल, दिव्य शक्ति के डर मेंं

दीपक प्रतीक है ज्ञान ज्योति का, प्रेरणा सदा यह देता है 
निष्क्रिय कर लो अज्ञानी तम, पुरुषार्थ शस्त्र लेकर कर मेंं

प्रज्वलित ज्योति फैलाती है, सकारात्मक ऊर्जा चंहुदिश,
कलुष प्रदूषण बह जाता है जैसे बहता खर निर्झर मेंं

हर्षोल्लास के मौके पर भी दीपक इक सार्थक प्रतीक है 
भूतल को करता प्रकाशमय, आभा नव बिखरेता अम्बर में

दीपक मेंं अग्नि देव रहते "श्री" जो धर्मपुत्र कहलाते है 
दीपक से मिलती सभी शक्तियाँ जो हम पाते हैं दिनकर मेंं 

श्रीप्रकाश शुक्ल