क्या करोगे अब बनाकर
स्वयं के मानक बड़े
जब कटोरा हाथ लेकर
सड़क पर चिन्तक खड़े ।
काम कुछ मिलता नहीं
सब परिश्रम व्यर्थ है,
दो जून की पाने को रोटी
घर घर मेंं अब लाले पड़े ।
नीतियां बाहर की भी
निष्क्रिय निर्रथक हो रहींं,
समझा रहे हैं उन्हें, जो
हैं जन्म से चिकने घड़े ।
क्या करोगे अब सुझाकर,
सम्वाद से ढ़हतीं दीवारें,
झुठला के सच, बे बात ले
अपनी जिद पर जो अड़े ।
क्या करोगे अब बढाकर
हाथ उनसे दोस्ती का,
भर कुटिलता हृदय मेंं
षडयंत्र जो अनगिन गढ़े ।
सार्थक होगा यही " श्री"
अपने घर पर ध्यान दें,
असहिष्णुता, दुष्कर्म पर
हों नियम अतिशय ही कड़े ।
श्री प्रकाश शुक्ल
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