मैं इस मंजिल पर
परिवार की खातिर आप सदा कर्तव्यों पर डटे रहे ।।
कुछ छोटी सी आकाक्षायें लेकर हम तुम साथ चले थे
पर देख समय की धार तुम्हारे मन मेंं नये विचार बहे
मैंने सोचा जितनी चादर उतने ही पैर बढाना है
पर तुमने डोर संभाली बढ, स्वेच्छा से कुछ बिना कहे
मुझे याद वो पहला दिन, जब तुम स्कूल गयी थी
बेटी ने पूछा, माँ है कहांं, मैं चुप था, बस अश्रु बहे
आज सभी बच्चे कहते हैं, पापा "श्री" माँ अदभूत है
माँ ने समिधा बन जीवन मेंं परिवार यज्ञ के कष्ट सहे
श्रीप्रकाश शुक्ल
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