Sunday 18 September 2016

मेघों के कन्धों पर चढ़कर 

मेघों के कन्धों पर चढ़कर 
कितने ढीठ होगये पुष्कर 
खेत जोहते बाट रात दिन  
प्यासी धरा तड़पती तुम बिन 
नदी सरोवर ताल तलइयां तुम बिन सब बेजान हो रहे  
जीव जंतु पशु पक्षी सारे  जीवन के अरमान खो रहे  

स्तुति कर तुम्हें बुलाते है हम 
आरति कर तुम्हें रिझाते है हम 
सुनी अनसुनी कर देते हो 
धैर्य परीक्षा क्यों लेते हो 
मनुहार हमारी सुनकर तुम आते हो, जीवन देते हो 
पर अक्सर अनखाये से सुख कम, गम ज्यादा देते हो 

बहुधा निर्ममता से तोड़ो मर्यादा 
सुखदायक कम, विध्वंसक ज्यादा  
कहर ढहाते, भय फैलाते 
नगरी , गाँव बहा ले जाते 
कोई वतन नहीं  छुटता है, जहाँ तबाही न मचती हो
युक्तियाँ  तितर वितर होती हैं शायद ही कोई बचती हो



पर यह भी सच है, जब तुम आते हो
संयोगी, बिरही मन में मादकता भर जाते हो
धरती की तपन बुझा, ठंडक पंहुचाते हो
रिमझिम की तालों पर मन मयूर नचा जाते हो 


आओ तुम अवश्य आओ, प्यासेे मन की क्लांति हरो
वसुधा पर हरीतिमा बिखेर घर घर में धन धान्य भरो

श्रीप्रकाश शुक्ल 

No comments:

Post a Comment