Sunday, 5 January 2020

रजनीगंधा मुस्कायें
 

रत्न प्रसविनी धरती ये, सोचो इसमें हम क्या बोयें ।
बोयें ऐसा, अंकुरण बाद युग युग तक जिसे संजोयें ।।   

बोयें इसमें ममता, समता, एकता और मानवता ।
साथ ढ़ेर सी सहनशीलता, जिससे आपा कभी न खोयें  ।।

जो बोते हम वही काटते इसीलिए ये आवश्यक है ।
ऐसा कभी न हो कृतित्व, जिसके परिणाम सभी ढोयें।।

तुम कुम्भकार, बदलो विचार ऐसा कुछ अलग रचो जग में ।
हर आंगन में कलियां महकें,
रजनीगन्धा मुस्कायें ।।

जीवन मिला तो जीना सीखो, जीवन गुजारना कायरता है "श्री" ।
जो जीते औरों की खातिर, उनके नाम अमर होयें ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल

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