एक मित्र ने कहा अभी कुछ लिखकर भेजो, सोचा जो भी लिखा आपसे क्यों न.साझा कर लूं।
परिदृश्य उभर जो आया उसने किया दुखी, पर विवेक बोला, क्यों न भेजकर
उसको मन के बोझ को हल्का कर लूं ।।
रचना प्रस्तुत है ।
क्या लिखूं कैसे लिखूं ?
क्या लिखूं कैसे लिखूं स्याही भी अब सकुचा रही है ।
जानती है वो कलम अन्दर, मौत बाहर बुला रही है ।।
राम का मन्दिर बने, आम सहमत हो गयी है ।
पर खेलती आंगन से सीता जबरन उठाई
जा रही है ।।
झूठे उसूलों के पुलन्दे, खुलके बाहर आ गिरे हैं ।
देश का सम्मान और सम्पत्ति अब मिल बांट खायी जारही है ।।
घर पड़े टूटे अधूरे, शहजादे विकास अब यायावर हैं ।
सब्जियों की बात क्या, प्याज की थाली भी छीनी जारही है ।।
जो जी रहे थे पानी हवा पर वो भी नसीब से बाहर है ।
सोच रहा है "श्री" अब कैसी झांकी दिखाई जारही है ।।
श्री
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