बूँद भर जल बन गया
जन जीवन का असल मोल ।
थलचर जलचर हैं सभी त्रसित,
बिन पानी जीवन है डवां डोल ।।
टक टकी लगाए नीलाम्बर में,
अपलक नयनों से देख रहे हम ।
जो मेघ उठे जल भर आँचल में,
बरसे न धरा पर कहाँ हो गए गुम ।।
जो हवा चली शीतल सी तनिक,
सोचा कि पास में बरसा होगा ।
अविलम्ब यहाँ भी आ पंहुचेगा,
घनरस इतना निठुर न होगा ।।
आज प्रात की वेला में, कूंकें सब मोर
एक सरगम में ।
आश्वस्त हुआ, हैं प्रसन्न श्री इंद्रदेव,
बरसेगा, घर आंगन में ।।
एक शाम हुई बदली घिर आई
तरूपात हिले, मेढ़क टर्राये ।
हल्का सा झोंका पुरवा लाई
कुछ बूंदे टपकीं, हम हर्षाये ।।
पर पल भर में आकाश साफ था
हवा रुक गयी उमस बढ़ी ।
दिनकर दमके,बढ़ रहा ताप था
फिर से जीवन की कठिन घड़ी ।।
अरे हो रहा ऐसा क्यों "श्री "
सारी आशा निर्मूल हो गयी ।
जब बरस रहा है, नगर नगर में
प्यासी दिल्ली, क्या भूल होगयी ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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