देती भू पर मोती बिखेर
मीलों तक पसरा श्वेत शून्य
झीलें, तलाव पूरे निमग्न हैं ।
पशु पक्षी छुप कर बैठे है
मानों जैसे प्रभु ध्यान मग्न हैं।।
हिम आच्छादित सूखे तरु
पंक्ति बद्ध हो खडे हुये हैं ।
लगता है बृह्मज्ञान जिज्ञासु
संकल्पित जिद पर अड़े हुये हैं।।
हिम पात होरहा है झरझऱ
सड़कों पर हिम का लगा ढेर।
हे शीत ऋतु तू निर्मम है,पर
देती भू पर मोती बिखेर।।
पड़ रही कड़ाके की सर्दी
बस नानी याद आरही है ।
पद चाल लग रही बहकी बहकी
जैसे पृथ्वी कंप कंपा रही है ।।
नीले अम्बर में कोहरा छाया
दिन है पर दिनकर नज़र न आया ।
यह परिदृशय है उत्तर पूरब का
" श्री" के न्याययुक्त स्थायी घर का ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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