Sunday, 5 January 2020

रजनीगंधा मुस्कुराये

आप जब से चोरी चोरी मेरी मन बगिया में आये ।
सारी बगिया महक उठ्ठी रजनीगन्धा मुस्कुराये ।।

आपके स्मित की आभा अधरों पर आ रुक सी गयी ।
आपके अधरों से निसृत गीत हमने गुनगुनाये ।।

आपकी आवाज़ सुनकर कोकिला शरमा गयी ।
हम सभी निस्तब्ध बैठे भाग्य अपने को सराहे ।।

आपसे मिलने को लपटें उठीं पर मैंने बुझा दीं।
सोचा कहीं ऐसा न हो, शेष सब भी झुलस जाये।।

है नेहग्रन्थि एक पहेली, कभी उलझी कभी सुलझी लगे 'श्री"।
हो तनिक भी भूल तो, फिर सदा को उलझ जाये ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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