प्राण मेंं मेरे समायी
समझ आयी।
पर अप्रतिम रचना की छवि प्राण मेंं मेरे समायी ।।
चर अचर तूने रचे, सागर रचे, नदियां रचीं
और मुखर या मौन भर दी, विविध रंग की रोशनायी ।।
भावना के खेल मेंं तूने गढ़ी, इक अज़ब सी चतुरता ।
प्रीति मेंं भय, विश्वास मेंं सन्देह भर, मिलन के संग दी जुदाई ।।
नभ में भरा विस्तार अपना, दी धरणि को धैर्यता ।
प्रकृति मेंं भर सहिष्णुता, इक विशद महिमा सजायी।।
है असम्भव समझना "श्री" किस तरह करता सृजन तू ।
ब्रम्हांड मेंं सबसे अलौकिक, दुरुह है तेरी खुदायी ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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