रजनीगन्धा मुस्कुराये
जब जब अम्बर से मेघों ने, भू पर मोती बरसाये ।
सरसिज खिले सरोवर आँचल,
रजनीगंधा मुस्कुराये ।।
तपती हुई ऊष्मा से, वसुधा बेहाल पड़ी थी ।
भरी पवन में शीतलता, चल अचल सभी हरषाये ।।
पेड़ों के पत्ते नाच उठे जैसे केकी नाच रहे हो।
आकुल पथिक याद घर की कर उल्टे पांव लौट आये ।।
सूखी नदियाँ उफन पड़ीं तालावों में जीवन लौटा ।
भूमि पुत्र को हुआ भरोसा, "श्री" देर नहीं जब मंगल छाये ।।
वारिश में तूफान उठा है, बाहर अंदर शुचिता आएगी ।
संभल के रहना नगरवासियो, बगुला बैठे खिसियाये ।
केकी : मोर
श्रीप्रकाश शुक्ल
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