जो खुला आकाश स्वर मेंं
जो सजा विश्वास उर में, हम सभी मिल साथ चलते।।
तो कोई अवरोध पथ मेंं आ, हमें न रोक पाता ।
हो अप्रतिभ संकल्प से, पांव उल्टे लौट जाता ।।
खग बृन्द नभ में किस तरह, दूरी अनागत पार करते ।
समुदाय बतखों के सरों में, आनन्द से हिल मिल विचरते ।।
आत्मीयता का भाव जीवन में, सुखद अनुभूति लाता ।
समय कितना भी कठिन हो, हंसते गाते गुजर जाता ।।
मिलना जुलना सभी से, द्वेश की कुंजी रही है ।
मुस्कुरा के, हंस के मिलना, संजीवनी इक अनकही है ।।
सार सब धर्मों का "श्री," मेरी समझ मेंं यही आता ।
कर्मफल के हम रचयिता,भाग्य अपने के विधाता ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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