Wednesday 17 August 2011

चीटियाँ और हाथी


एक सीलन भरे,
घुप अँधेरे,
कोष्ट में,
थकी हारी,
मै अकेली
लड़ रही थी
कुरूप दुष्ट चीटियों से,
जंगली हाथियों से,
डर रही थी
बिखर रही थी
व्यस्त थी
त्रश्त्र थी 
पस्त थी
और कण कण ध्वस्त थी


एक मित्र आया
था अचंभित,
बोला
अरे चीटियों में,
हाथी दिखा कैसे ?
यह तो तुम्हारा भ्रम है
एक दूसर मित्र पहुंचा
बोला
अरे यह तो चीटियाँ ही है
हाथी कहाँ ?

हम तो देख सकते हैं
साफ़ साफ़ ,
यह तो तुम्हारा भ्रम है

फिर मैंने आँख खोली
और देखा झांक,
बह चुके थे
आंसू कितने
अब तक ?

क्या कोई चीटियाँ थीं
या कोई हाथी था वहां ?
या फिर मैं लड़ रही थी
केवल अपने भ्रम से ?

श्रीप्रकाश शुक्ल

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