Tuesday 11 October 2011

पाकिस्तानी टेलीफोन

आज डायरी के पन्नों को , पलट रहा था प्रातः उठकर
आँखों के सन्मुख आ पहुंचे, धूमिल से कुछ चित्र उभरकर
परिद्रश्य एक छोटा सा, अंकित था प्रष्ट इकत्तर पर
युद्ध काल की संध्या थी, जब भेजा गया मुझे पूर्वोत्तर

खडी हुयी वो मध्य द्वार पर, बिटिया लटकाए हाथों पर
आँखों से जल धार बह रही, खोल सकी ना बंधे अधर
मैंने ही बोला था उससे, चिंता फिकर न कोई करना
मैं जल्दी ही लौटूंगा, पर तुम कोई जिकर न करना

शीश हिलाकर यही कहा था, जाओ यदि जाना ही है
लेकिन इस बिटिया की खातिर, तुम्हें लौट आना ही है
एक बार फिर मुडके पूछा, बेटा ! तुम्हें चाहिए क्या
मम्मी के जन्म दिवस पर बापस आ सकते हो क्या ?

विजय दिवस के दिन जब, घर को बापस आना था
सोचा कुछ उपहार ले चलूँ, बिटिया को जो मनाना था
ध्वंश पड़े से दफ्तर सारे, घिरा हुआ शमशानी मौन
साथ ले लिया दुखी विलखता पाकिस्तानी टेलीफोन

बिटिया ऐसा देख खिलौना, कितना मन हरसाई थी
लगता था उसने दुनिया की, सारी जन्नत पायी थी
कहती थी मेरे पापा, बस आज लौट कर आयें हैं
और भगा कर दुश्मन सारे, ये फोन छीन कर लाये हैं


श्रीप्रकाश शुक्ल





1 comment:

  1. भाग्यशाली है बेटी ,जिसके पिता अपने शौर्य से प्राप्त कर इतना दुर्लभ उपहार लाये हैं ,
    उस गर्वोन्नत शीष को मेरा नमन !

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