दीप हूँ जलता रहूँगा
ज्ञान का मैं दीप हूं, जलता रहूंगा अनवरत
जब तक न मन का मैल, उधडे परत दर परत
कुटिलता सुरसा बनी, पथ में खड़ी है मुंह पसारे,
कल्याण के हर कार्य में अवरोध बनती जो सतत
स्नेह की बाती सदा, रह साथ खुद जलती रही
मिलकर थपेड़े आंधियों के, हमने सहे हैं अनगिनत
हर धर्म के अनुयायियों से, मेरी केवल ये गुजारिश,
निज धर्म की रक्षा करो,पर दूसरों से हो न नफरत
आज सारे जग में फैला जोर "श्री " दुसवारियों का,
मित्रवत जीवन जियें हम, हो यही सब की जरूरत
श्रीप्रकाश शुक्ल
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