बात रहती है अधूरी
वतन छोड़ने की कसक, बढ़ा देती है दूरी
गुफ़्तगू रोज हो चाहे, बात रहती है अधूरी
मौसम बदलते, त्यौहार आते, जश्न मनते है
ये मौंके हैं, जब होता है, गले मिलना ज़रूरी
जी चाहता वो आएं, पास बैठें, और बतयाएँ
ईद के वो चाँद क्यों, अरे क्या ऐसी मज़बूरी
जब थकते जीवन के प्रयास ,हार मान घबराते हम
वांछित तब संकल्प साध, हम रक्खें पर्याप्त शबूरी
संतोषी सुख पाता है, ये समझा हुआ मंत्र है "श्री"
स्वार्थ त्यागने से ही होंगीं, युवकों की इच्छाएं पूरी
श्रीप्रकाश शुक्ल
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