मैं किसान हूँ भारत का
महिमा मंडन बहुत हुआ
पर अब नहीं सुहाता है
हर पांच साल के अन्तराल पर
लाल किला चिल्लाता है
करवट लेेगी कुबेर दृष्टि
पर चन्द्रगुप्त मुंह बिचकाता है
सो जाता दिन जब पर्दों में
सारा कुनबा उठ जाता है
तपते हुये आसमान मेंं
खेतों मेंं खफ जाता है
फसल ठीक तो होती है
घर तक मुठ्ठी भर जाता है
लिया उधारी का जो कुछ
खेतोंं पर ही चुक जाता है
कोई कहते भाग्य विधाता
अन्तस में उठती एक पीर
अब "श्री" कुछ नहीं सुहाता है
श्रीप्रकाश शुक्ल
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