संभव अभिव्यक्ति नहीं
प्रागंण में कोलाहल है पंछी आकुल चिल्लाते हैं
और निठल्ले खड़े सड़क पर नारे नये लगाते हैं
बहुयामी ढ़ेरों काम हो रहे सारे के सारे जन हित मेंं
पर मतलवी स्वार्थ प्रेरित जनता को भड़काते हैं
कैसी बिडम्बना है कि जो पढ़े लिखे और ज्ञानी भी हैं
पर सस्ती सी लोकप्रियता हित बात अनर्गल कर जाते हैंं
दिल पर चोट पहुंचती जो, है उसकी संभव अभिव्यक्ति नहींं ं
शब्द और भाषायें अपनी सीमा पर आ रुक जाते हैं
प्रति पल चिन्हित रहता "श्री" छवि अपने घर की धूमिल न हो
पर जयचन्दों की भीड़ देख तेवर खुद ही चढं जाते हैंं
श्रीप्रकाश शुक्ल
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