तोतापंखी किरणों में
संगीनी दूषण ।
सर्व धर्म सदभाव संस्कृति, सदा रही अपना आभूषण ।।
अनवर आदत, लल्लन भाई, किक्कर सिंह, फिरदोस, कृष्टफर।
बड़े घने पीपल के नीचे साथ बिताए कितने अमोल क्षण।।
राम नाम की ओढ़ चदरिया, दया धर्म क्यों बेच रहे हो ।
नफरत की चिनगारी दे, क्यों उकसाते हो विष्फोटक कण ।।
अमन चैन का भ्रम पाले, सपने अनेक हैं रखे संजोये ।
नही समझते कर्म हमारे बनते हैंं
कल का दर्पण ।।
अहं त्याग हम सबको "श्री" इस बाग की रक्षा करनी है ।
रोपो प्यार, रखो सींचे, हर इक पौदे को दो पोषण ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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