धूप की अनगिन शिखायेंं
आकाश धरती चांद सूरज और खुबसूरत फिज़ायें
प्राण भरतीं जिन्दगी मेंं धूप की अनगिन शिखायें
अरुणिम किरण जब सूर्य की नित प्रात मुंह को चूमती है
आभास होता स्वर्ग सुख, जैसे परींं अमृत पिलायें
रात्रि शशिधर चांदनी संग जब गगन मेंं डोलते हैं
कण कण धरा का मुस्कराता, नदी तरुवर खिलखिलायेंं
मूलतः वो तत्व जिससे, सारा जगत निर्मित हुआ है
उपहार मेंं हम पागये, आओ घुल मिल दिन बितायेंं
अनुपम प्रकृति की देन का संभव नहीं ऋण चुका पाये़ंं
संकल्प लेंं, रक्खेंं सुरक्षित, "श्री "रूप दिन दूना बढ़ायें
श्रीप्रकाश शुक्ल
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