त्थरोंं पर गीत लिक्खे
जो शत्रु के हाथोंं मेंं भी, चट्टान से
अविचल रहे,
वो साहसिक, भुज बल समेंटे, विपरीत धारा के बहे ।
अपनी धरा प्रति प्रेम जिनका, था सदा ही गगनचुम्बी,
जो कहा, करके अमिट, दिल मेंं सब के छा गये।
पुरु ने प्रत्युत्तर मेंं सिकन्दर से कहे थे शब्द जो,
आज उनके अक्स, सहसा उभर सन्मुख आ गये।
बलि का स्वयं को नपा देना, भीष्म की भीषण प्रतिज्ञा,
निज सुरक्षा कवच देना, याद फिर से दिला गये।
ऐसे अनेकों बांकुरे "श्री"भूमि भारत पर उगे,
इन सभी ने पत्थरों पर गीत लिक्खे आन बान निभा गये।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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