Friday, 17 May 2019

सूरज की छवियां

आ रहे हैं विभाकर, मंदगति आकाश मेंं
साथ मेंं ले उषा को, बांध निज भुज पाश में

इस अवतरण का अमीरस, पीते रहे हम नित्य प्रातः
फिर भी न पाई तृप्तिता   बढती हुयी सी प्यास मेंं

कान्तिमय सजता रहा नभ, नित्य ही इक सुन्दरी सा
कूंकुम की बिंदिया उषा की, भरती नशा एहसास मेंं

आलोक के ये जनक रवि हैं, पूज्य सारे जगत मेंं
ऊर्ज्वसित करें कण कण को जग में पीत वर्णी लिबास मेंं

सूरज की छवियाँ विपुल "श्री ",कवि कलम से निसृत हुयींं 
प्रकृति प्रेमी रहे डूबे, इस अप्रतिम
छवि की मिठास में 

श्रीप्रकाश शुक्ल

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