Thursday 30 August 2018

उम्र ढलते ही

उम्र ढलते ही मुझे, खुद को समझाना पडा।
जो था समझा आज तक उसमें है लोचा बडा

स्वार्थ मेंं मशगूलता मकसद नहीं इस जिन्दगी का 
जिन्दगी है इक तपस्या, है सतत इक व्रत कडा 

जिन्दगी की दौड मेंं काम अनुचित हो रहे हैं
परिणाम सन्मुख आयेगा, जायेगा जब भर घडा

अब भी समय कुछ शेष है पर उपकार मेंं जीवन बिता 
फिर समय न पायेगा कलि काल द्वारे पर खडा 

व्यर्थ में जाया किये बेमोल पल "श्री" जिन्दगी के 
संवेदना को कर तिरष्कृत, क्यों तू अपनी पर अडा

श्रीप्रकाश शुक्ल

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