अपने अपने शून्य
संवेदना रहित इस नगरी में ग्राहक अनगिन खुद आजाते
ग्राहक भी प्रतिभावान मनीषी, देखे खरीदते छिछलापन
रख दूर ताक पर सारा विवेक मूल्यों का करते दिखे हनन
स्थापित हैं लिख चुके बहुत अब नहीं सोचना क्या लिखना
चिंता नहीं समाज क्या चाहे अपनी ढपली राग है अपना
पर मत भूलो जनता जागृत है अच्छा बुरा जानती है
चाहे कितने आवरण धरो अभिरुचि असली पहचानती है
बिन मांगी सलाह है ये, चलती बयार की दिशा जान लो
जो लिखते आम आदमी हित, उनसे रच पच सही ज्ञान लो
खुद को संतुष्टि मिलेगी ही, कुछ समाज का ऋण उतरेगा
यदि हुआ न ये तो सारा दीवान सूखे पत दल सा बिखरेगा
श्रीप्रकाश शुक्ल

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