Sunday 19 July 2015

अपने अपने शून्य

जब अपने अपने शून्य बेचने कवि स्वयंभु आवाज़ लगाते
संवेदना रहित इस नगरी में ग्राहक अनगिन खुद आजाते  
ग्राहक भी प्रतिभावान मनीषी, देखे खरीदते  छिछलापन  
रख दूर ताक पर सारा विवेक मूल्यों  का करते दिखे हनन 

स्थापित हैं लिख चुके बहुत अब नहीं सोचना क्या लिखना   
चिंता  नहीं समाज  क्या चाहे अपनी ढपली राग  है अपना   
पर  मत  भूलो  जनता  जागृत  है अच्छा  बुरा जानती  है 
चाहे  कितने  आवरण धरो  अभिरुचि  असली पहचानती है 

बिन मांगी  सलाह  है ये, चलती  बयार की दिशा जान लो 
जो लिखते आम आदमी हित, उनसे रच पच सही ज्ञान लो
खुद को संतुष्टि मिलेगी ही,  कुछ समाज का ऋण उतरेगा 
यदि हुआ न ये तो सारा दीवान सूखे  पत दल  सा बिखरेगा  

श्रीप्रकाश शुक्ल

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