कल जिसने घूंघट खोला था,
गले में मंगल सूत्र डाल , हाथों में चूड़ा अरुणिम पहने
वो आई थी स्वप्न मधुर ले साथ सुसंगतता से रहने
अस्मिता ध्वनित थी अंतस में, संबल अपनों का संचित था
स्नेह परजनों का पाने का, विश्वास ह्रदय में संकल्पित था
कल जिसने घूंघट खोला था, आज पूर्ण दायित्व सँभाले
विधिवत निपटा रही काम सब बिना शिकन चेहरे पर डाले
सीमित नहीं यहीं तक है, वो धता बताती रूढ़ि प्रथा को
अपने स्व का आभास कराने चिंतित है वो नयी कथा को
है सुलग रही जो तृषा नारि के अंतर्मुखी अचेतन मन में
जीवित हो, कब भर पायेगी, पल दुर्लभ मुरझाये तन में
निर्जीव गठरियों सी ख़ामोशी कब तक वो मिटा सकेगी
नारी स्वर मुखरित होगा कब भार तुंग सम हटा सकेगी
ये सब चिंताएं नारी को झकझोर, कह रहीं आगे बढ़
लक्ष्मण रेखा तोड़, छोड़ अबलापन, गति के पथ पर चढ़
तब घूँघट में से झाँकेगी, स्वतंत्र प्रकृति जो सत्य आप में
नारीत्व सार्थकता पायेगा दंपति सुख विकसेगा मिलाप में
श्रीप्रकाश शुक्ल

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