Sunday 19 July 2015

लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर,

जनगण  के जो संरक्षक थे, सत पथ के थे रखवाले 
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, नए कथानक इतने काले 
चकित रह गया देश देख, कितना कोई गिर सकता है 
साफ सजी तस्वीर कोई,  कैसे  धूमिल  कर सकता है 

अर्थशास्त्र में अतुल निपुणता, सारे जग ने जिनकी मानी  
व्यवहार सौम्यता  में  जिनका, भारत में दिखा न  सांनी 
केवल पद की लोलुपता में, अनुचित कार्यों से आँख फेर ली  
जब तक तटस्थ हूँ दोषी मैं क्यों, ऐसी क्यों धारणा घेर ली  

इतिबृत्त साक्षी है पहले भी ऐसा, एक कथानक रचा गया था  
धर्मराज ने जान बूझ, अनविज्ञ बने, सच का साथ तजा  था   
जनता के न्यायलय ने तब भी उनको  दोषी ही ठहराया था 
स्वर्णिम छवि की न्याय मूर्ति में असित निशान लगाया था 

ऐसी स्थिति में यही अपेक्षित अपने कृत्यों को स्वयं आंक लो 
 शोहरत की चाह न हो हावी  अन्तर्मन में इक बार झांक लो 
भूल अगर ऐसी   है   जिसका ,  कोई  शोधन प्राप्य नहीं  
तो  उचित यही है, स्वीकारो, भूला  होता  है त्याज्य नहीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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