दीपाली पर जगमग जगमग, जब सारे घर होते
मिटता तमस वाह्यान्तर का, मन आल्हादित होते
यदि हम जन जन के मन में, कर्तव्य भावना भर पाते
जीवन पथ होता ज्योतिर्मय, हम नीद चैन की सोते
पर हम व्यस्त रहे पौढ़ाने, ऊंच नीच नफरत की बेलें
कर सकते थे प्रकाशमय जीवन, यदि बीज प्यार के बोते
इस दीपावलि पर तो प्रकृति क्रोध से कांप रही है धरणी
दीप बुझ रहे नित्य अनेकों,सम्पन्न राष्ट्र भी दिखते रोते
अब तो मात्र एक साधन "श्री" जो दीपावलि को शुचि रक्खे ।
मन में हो प्यार, रहे दूरी, रहेंं खूब कर धोते।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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