क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा
सारा जग इक रंग मंच है जन मानस है कठपुतली।
नचा रहा दिकदर्शक सबको ,जैसे सूत की तकली।।
क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा बन, हम सारे,
मर्कट सम भटक रहे हैं, नगर नगर और गली गली ।
यद्यपि उसने भेजा है, कर्म सभी का निर्धारित कर,
पर हम राग अलाप रहे, बजा के अपनी अपनी ढ़पली
परहित धर्म बताया उसने, दीन हीन पर दया भाव,
पर मदान्ध हम पाहन सम हैं, ऐंठन ज़रा न पिघली
अभी समय है चेत रे मन, फिर पीछे पछतायेगा,
करो शुभ काम, भजो "श्री"राम, अंत में जीभ हिली न हिली ।
श्रीप्रकाश शुक्ल
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